chamatkar chintamani

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Monday, May 16, 2011

ईश्वर

इस दुनिया मे तमाम सभ्यतायें आयी, कुछ हैं कुछ चली गई पर सबमे एक बात समान है कि हर सभ्यता किसी न किसी रूप मे ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करती है! चाहे किसी भी रूप मे करे पर है! कुछ आलोचनात्माक विचार वाले मूर्खता का नाम देते है कुछ विश्वास का तो कुछ अन्धविश्वास का, उन सब से परे कुछ नास्तिक वृति के लोग भी हैं जो सिरे से नकार देते है! कुछ तो ऐसे भी हैं जिनके सिर पर साक्षात ईश्वर ही आते है !! पर क्या बात है जिसने करोडों लोगों के हृदय मे जड बना रखा है! मिटाने से भी नही मिटता!!भारतीय साहित्य की आलोडन पर एक उक्ति मिलती है कि ""व्यासोछिष्टं जगत सर्वं"" मतलब कि जितना भी साहित्य है सब जगह व्यास की कृतित्व का प्रकाश है उन्ही व्यास जी का एक श्लोक है!
यं ब्रह्मावरूणेन्द्ररुद्र मरुतै स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवै, वेदैः सांग पदक्रमोपनिषदै गायन्त यं सामगाःध्यानावस्थित तदगतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः!!

इस श्लोक के माध्यम से व्यास जी ने बताया कि जिस देव की ब्रह्मा वरुण, रुद्र, मरुदगण, वेद उपनिषद, आदि ने बारम्बार दिव्य स्तोत्रों से आराधना की है, जिस देव को उसी मे समाहित यानि कि उसी को हृदय मे ध्यान करते हुये जिसको योगी लोग देखते रह्ते है जिसका अंत सुर असुर कोई नही पा सके उस देव को नमस्कार है!!

कुछ जगहों पर लेखक व्यक्त रूप से कह पाने मे असमर्थ हो जाते है तो कहते है-
यं शैवा समुपासते शिवईति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवस्तर्केति नैय्यायिकाअर्हन्नित्यथजैनशासन रता कर्मेति मिमांसकाः सोयं वो विधधातुवान्छितफ़लं त्रैलोक्य नाथो हरिः॥

जिसकी आराधना शैव शिव के रूप मे, वेदान्ति ब्रह्म के रूप मे बौद्ध बुद्ध के, प्रमाण से सिद्ध होने वाले शास्वत तर्क के रूप मे नैय्यायिक मीमांसक जिसको कर्म के रूप मे मानते है वो त्रैलोक्य नाथ श्री हरि हम को वान्छित फ़ल प्रदान करें!!एक बार तो व्यास जी भी हाथ पाव जोड कर प्रार्थना करते है कि जिसका कोई रूप नही पर ध्यान से हम उसके निराकार को साकार कर देते है, जिसकी तुलना नही की जा सकती जो अनिर्वर्चनीय है जिसका बखान नही किया जा सकता उसकी हम स्तुति कर देते है, जिस परम पिता का व्यापित्व इतना है कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड उसके रोम कूपों मे विद्यमान है उसकी व्यापकता को हम तीर्थयात्रा आदि से छॊटा कर देते है - छ्न्तव्यं जगदीश तदविकलता दोषत्रयंमत कृतम!! व्यास जी माफ़ी मांग रहे है कि -- हे जगत के आधार हे जगत के ईश मेरी मुर्खता को छमा कर दो मैने जो ये तीन गलतियां की हैं उसे छमा करो!! पर सन्तुष्टी नही मिलती हो सकता है कि हम मुर्ख हों, मनु ने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और विविध शास्त्रों के विवेचन आदि से तत्व को खोजना चाहिये!तब सिर उठाया तो वृक्ष देखे उनकी प्रत्येक पत्ती एक दूसरे से अलग, कोई माता पिता नही पर मिट्टी से ही जीवन की हर व्यवस्था, दूर देखा तो पक्षी पर जीवन की तरलता बरकरार, पानी मे देखा तो वहां भी जीवन, पर पानी पर नजर जाते ही समझ ने जवाव दे दिया कि भाई आखिर रंग हीन स्वाद हीन पर अतिआवश्यक जीवन तत्व किसने बना दिया पानी और मिट्टी के संयोग से उडने वाली गन्ध ने अहसास दिलाया कि कुछ नाक मे से आ-जा रहा है। जो अदृश्य है पर उसको रोक देने से आंख की पुतलियां उलटने लगी अरे ये क्या है किसने बनाया मन बेचैन परेशान तो फ़िर अन्य ग्रन्थों का सहारा लिया तो पता लगा पानी h20 है जिससे सारी पृथ्वी और भरी पडी है और शरीर का अधिकांश हिस्सा भी वही है!, हवा मे कई तत्व है जैसे o2 co2, nitrogen, hydrogen पर हर तत्व का अलग कार्य है जरूरत सबकी है! तो जो प्रकृति मे सुलभ है उसी से शरीर भी बना ऐसा तन्त्र कि जिसका मूल तत्व क्या है कैसा है किसी ने इस पर नही लिखा, आखिर ये पद्धति कैसे बनी कि मां के गर्भ से उत्पन्न होना है और जरा को प्राप्त कर ये शरीर निष्क्रीय हो जाना है! शरीर मे वो कौन सा तत्व है जिसके न रहने पर शरीर अचेतन, निष्क्रीय हो जाता है!! आधुनिक लोगों ने उसको तरह तरह से बखाना पर कोई जवाब सटीक नही पर एक शब्द निष्प्राण हो जाना ही बता गया कि कोई प्राण तत्व है! जिसके न रहने पर शरीर बेकार हो जाता है!! इसकी व्यवस्था किसने की किसने हर तत्व को नियुक्त किया कि तुम्हारा ये कार्य है तुम ये करो पर प्राण के रूप मे सबको साधता हुआ शरीर को नियन्त्रित करता रहता है!! वही ईश्वर है जो हर चेतन पदार्थ के अन्दर अपने उपस्थिति मात्र से चैतन्यता प्रदान कर के इस समस्त संसार की क्रियाओं को कर रहा है!! जिसमे संसार के समस्त गुण हैं पर वो सर्वथा निर्लिप्त है सबसे, कोई माने या न माने कोई पूजे या न पूजे पर वो अपना कार्य निष्पक्ष रूप से, पूरे लगन से कर रहा है॥वेदों ने तो कह दिया- यदकिंचिद जगत्यां जगत वर्तते तत ईशावस्य मिदं , जो भी जगत मे है उसमे ईश्वर ही है॥अंत मे वेद कहते है योसावादित्ये पुरुषः सो सावहम्म ॥ जो वो आदित्य आदि मे है वही मैं हूं!अपना तो विश्वरचनाकार ईश्वर ही है! आप क्या कहतें है॥

1 comment:

  1. ऊर्जा सदाचार आस्तिकता मनुष्य समाज की सुख-शांति का आधार है। वह जीवन के अंतराल में प्रविष्ट होकर सही प्रेरणा देती है। ईश्वर है, केवल इतना मान लेना आस्तिकता नहीं है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास का लेना भी आस्तिकता नहीं है, क्योंकि आस्तिकता विश्वास नहीं अनुभूति है। ईश्वर को अपने अन्त:करण में अनुभव करना, उसकी सत्ता में संपूर्ण जगत को ओतप्रोत देखना और उसकी अनुभूति से रोमांचित होना ही सच्ची आस्तिकता है।

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