राजा भोज एक प्रसिद्ध राजा हुए । राजा तो थे ही स्वयं उच्च कोटि के कवि, लेखक, दार्शनिक भी थे । साहित्य पर इनके अनेक ग्रन्थ जगप्रसिद्ध है । उनकी योगसूत्रो पर भोजवृति भी प्रसिद्ध है । उनके दरबार मेँ बड़े - बड़े कवि थे, साधारण भी कोई श्लोक बनाकर राजा भोज के पास लाता था तो भोज उसका बड़ा सम्मान करते थे । दण्डी , बाणभट्ट आदि उनके सभापण्डित माने जाते थे । कालिदास भी उनके अत्यन्त प्रिय कवि थे । एक बार उन्होँने एक समस्या रखी पूर्ति के लिए ।
" हुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः "
बड़े - बड़े कवि एक दूसरे का मुँह देखने लगे । हुताशन - अग्नि चन्दनपंक के समान( घिसे हुए चन्दन) के समान शीतल हैँ । राजा का दिमाग पगला तो नही गया ? कोई बोल नहीँ रहा था । भोज राजा एक - एक कवि को कह रहे थे - समस्या पूर्ति करो । कालिदास जी मुस्कुरा रहे थे । भोज ने कहा - कालिदास जी, अब आप ही समस्या पूर्ति करेँ । कालिदास जी ने तुरंत कहा -
" सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके न बोधयामास पतिँ पतिव्रताः ।
तदाभवत्तत्पतिभक्तिगौरवाहुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः ।।""
राजा ने श्लोक के एक - एक अक्षर के लिए एक - एक लाख रुपये दिये । अक्षरलक्ष ददौ । कालिदास कहाँ कम थे ? लाखोँ रुपया गरीबोँ को बाँट दिया ।
कथा इस प्रकार से है राजा भोज समय - समय पर भेष बदल कर स्वयं गुप्तचर बनकर प्रजा की बात को समझते थे । पहले समय राजा लोगोँ का ऐसा ही नियम था, प्रजा के सुख - दुख को वे साक्षात् देखते थे । एक बार एक ब्राह्मणदेवता ने यज्ञ किया । गरीब होने पर इधर - उधर से कुछ धन एकत्रित कर यज्ञ प्रारम्भ किया । सम्पन्न होने पर यथायोग्य दक्षिणा देकर ब्राह्मण व देवताओँ को विदा किया । कई दिनोँ के अथक परिश्रम से यह यज्ञ सम्पन्न हुआ था पूर्णाहुति के बाद सभी चले गये थे, केवल एक ब्राह्मणदेवता एवं ब्राह्मणपत्नी , अग्नि , बच्चा यज्ञमण्डप मेँ रह गये थे । रात हो गई थी, कार्य पूरा होने पर ब्राह्मणदेवता को भारी थकावट हो गई थी तो वो वही यज्ञमण्डप मेँ लेट गये, पत्नी वहीं थी तकिया नही था इसलिए अपनी गोद मेँ ही पति का सिर ले लिया । ब्राह्मणदेवता को नीँद आ गयी । छोटा बच्चा खेलता - खेलता यज्ञकुण्ड के पास चला गया यह देख के ब्राह्मणी को घबराहट होने लगी कि बच्चा कहीँ यज्ञकुण्ड मेँ न गिर जाए । किन्तु उसको अपने पति पर पूरी भक्ति थी । ब्राह्मणदेवता थे भी वैसे । ब्राह्मण के सम्पूर्ण लक्षण उनमेँ थे । " शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्मस्वभावजम् ।।
ब्राह्मण को शम दम संपन्न होना चाहिये । मनोनिग्रह और वाह्येन्द्रियनिग्रह ब्राह्मण के लिये भृषण हैँ । संतोष यह मानस गुण है । इन्द्रियोँ के लालच का अभाव बाह्येन्द्रियोँ के गुण हैँ । तप करना तो ब्राह्मण का धर्म है । शुचिता नियत होनी चाहिये । शारीरिक शुचिता रखनी चाहिये । बाणी पवित्र और मन भी पवित्र हो । ब्राह्मण क्षमाशील हो । सीधापन हो , कपट न हो । वक्रमार्गी न हो । शास्त्राध्ययन जन्य ज्ञान हो । सबसे बड़ी बात आस्तिक हो । यह बाह्मणदेवता जो यज्ञमण्डप मेँ ठहरा था , सर्वगुण सम्पन्न था । पत्नी मेँ भी अपारनिष्ठा थी । बच्चा यज्ञकुण्ड के पास है अब पति का सिर नीचे करते है तो उनकी नींद टूट जायेगी इतने दिनोँ के बाद आज थके - थकाये सोये हैँ । कैसे जगायेँ ? सोच ही रही थी कि बच्चा कुण्ड मेँ गिर गया , हे राम!!
बच्चा गिर गया तो स्वभावतः रोने लगा । ब्राह्मण की नींद टूटी । क्या हुआ ? देखा तो बच्चा कुण्ड मेँ गिरा हुआ रो रहा है । ब्राह्मणदेव हड़बड़ा कर यज्ञकुण्ड के पास गये । देखा तो बच्चा का रोना बन्द हो गया था । क्या मरने से? नही, वेहोश होने से ? नही। बच्चे को कुण्ड से निकाला तो उसका एक बाल भी जला नही था । बच्चा मुस्कुरा रहा था । ब्राह्मण देव ने कहा - " अहो दयालु है भगवान् । तुम्हारी लीला अपरंपार है ।
राजा भोज सारा दृश्य दूर से देख रहे थे वहीँ उन्होँने श्लोक का चतुर्थ पाद् बनाया । " हुताशनश्चन्द्रनपङ्कशीतलः " । हुतमश्नातीति हुताशनः । आहुति को खानेवाला हुताशन वह चन्दनपङ्क के समान शीतल हो गया । राजा चुपचाप घर आये । जानना था कि वह चमत्कार कैसे हुआ , अन्य कवि भला यह सारा रहस्य कैसे जाने ? कवि का एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वो अदृष्ट लेखन यानी के जिसको देखा नही उसका भी वर्णन करने मे सक्षम होता है! कवि तो कालिदास ही थे । उनके मन मेँ स्पष्ट स्फुरणा हुई । और " सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके " इत्यादि पढ़ गये । यह उनका प्रतिभज्ञान था अतिन्द्रिय ज्ञान था । ऐसा अतिन्द्रिय ज्ञान जिसका हो उसी का काव्य यथार्थ होता है । प्रेरणादायी होता है । अन्तरात्मा तक पहुँचता है । सभास्थ सभी पण्डितोँ ने स्वीकार किया कि कालिदास ही कवि हैँ । इसीको क्रान्तदर्शन कहते हैँ ।
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Monday, May 16, 2011
प्रस्ताव!!
एक बार शंकर पार्वती जी अपने आप मे बातें करते हुये टहल रहे थे रास्ते मे भवानी ने पूछा कि - हे भगवान आप इतना ठंड कैसे बरदाश्त कर लेते हो! क्या आप का यह दिव्य शरीर शीत आदि से बाधित नही होता! शिव हंसने लगे उनका मन थोडा मजाक करने का था तो कहा गिरिजे प्राणप्रिये जब शीत के घर मे तुम्हारा जन्मस्थान है, शीतांशु मेरे सिर पर विराजमान है तो शीत से क्या डरना!भवानी भव से थोडा रुष्ट होते हुये बोली कि आप मेरे पिता का नाम बदनाम न करें और न ही बहाना करें आप तो राज बताईये!! नही तो मैं चली अपने पीहर!
भगवान बोले - अरे भागवान क्यों नाराज होती हो! व्यर्थ मे धमकी देती हो! जानता हूं मेरे बगैर नही रह पाती हो फ़िर भी शब्दबाण चलाती हो!!
फ़िर भगवान ने कहा इसके पीछे है एक भक्त की चालाकी !!
भवानी चकित !!अरे भगवान से भक्त ने चालाकी की कैसे! आप झूठ बोल रहे हैं ये सम्भव नही!!शंकर भगवान बोले - अरे नही जानती हो जब भक्त को काम निकालना होता है तो इतने प्रेम से आग्रह करता है कि क्या करूं न चाहते हुये भी मैं फ़ंस जाता हू! तुम भी तो मुझे आशुतोष नाम से बुलाती हो ये उसी का फ़ल है!!
अब भगवती और परेशान कि आखिर मे राज क्या है! क्या हो सकता है! कुछ ऐसा है जो भगवान छुपा रहे है!! भगवती ने गुस्से से मुंह फ़ेरा और आशुतोष विश्वनाथ बोले अच्छा चलो मैं बता रहा हूं॥एक बार मेरा एक भक्त आया और उसने मुझसे ही मिलने की जिद की, नन्दी भृंगी आदि के लाख पूछने पर भी कुछ नही बताया तो मैने कहा नन्दी से लाओ देखें क्या कहता है तुम उस समय स्नान करने गई हुई थी!! भक्त आया और आते ही मेरे चरणॊं मे गिर गया और श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करके उसने मेरे पास प्रस्ताव रक्खा -
गंगा जलात हैमवती प्रसंगात शीतांशुनाशीत निपीडितोसीतापत्रयातिपरितापित मानसेस्मिन आगत्य तिष्ठोप्युभयकार्य सिद्धी!!
उसके वचनानुसार मेरे सिरपर गंगधार है ,गंगाजल जो की अत्यन्त शीतल होता है , हिमवान की पुत्री से विवाह हुआ है और सिर पर शीतांशु चन्द्रमा भी है जो की परम शीतल है!! हे भगवन आप तो ठंड से अकड जायेंगे!! इसलिये भगवान त्रिविध तापों (आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक) से पीडित मेरे हृदय मे आप आ के वास करिये तो मेरी जलन खत्म हो और आप की अकडन भी खत्म हो जाये दोनो सुखी हो जाये!! उस भक्त के इस प्रस्ताव को मैं ठुकरा न सका और विश्वनाथ होने के कारण मैं भक्तों के तापत्रय युक्त हृदय मे वास करने लगा इसलिये मुझे सर्दी नही लगती!!पार्वती जी ने मन्द मुस्कुराहट के साथ प्रणाम किया और दोनो लोग अपने आश्रम मे वापस आगये!!
भगवान बोले - अरे भागवान क्यों नाराज होती हो! व्यर्थ मे धमकी देती हो! जानता हूं मेरे बगैर नही रह पाती हो फ़िर भी शब्दबाण चलाती हो!!
फ़िर भगवान ने कहा इसके पीछे है एक भक्त की चालाकी !!
भवानी चकित !!अरे भगवान से भक्त ने चालाकी की कैसे! आप झूठ बोल रहे हैं ये सम्भव नही!!शंकर भगवान बोले - अरे नही जानती हो जब भक्त को काम निकालना होता है तो इतने प्रेम से आग्रह करता है कि क्या करूं न चाहते हुये भी मैं फ़ंस जाता हू! तुम भी तो मुझे आशुतोष नाम से बुलाती हो ये उसी का फ़ल है!!
अब भगवती और परेशान कि आखिर मे राज क्या है! क्या हो सकता है! कुछ ऐसा है जो भगवान छुपा रहे है!! भगवती ने गुस्से से मुंह फ़ेरा और आशुतोष विश्वनाथ बोले अच्छा चलो मैं बता रहा हूं॥एक बार मेरा एक भक्त आया और उसने मुझसे ही मिलने की जिद की, नन्दी भृंगी आदि के लाख पूछने पर भी कुछ नही बताया तो मैने कहा नन्दी से लाओ देखें क्या कहता है तुम उस समय स्नान करने गई हुई थी!! भक्त आया और आते ही मेरे चरणॊं मे गिर गया और श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करके उसने मेरे पास प्रस्ताव रक्खा -
गंगा जलात हैमवती प्रसंगात शीतांशुनाशीत निपीडितोसीतापत्रयातिपरितापित मानसेस्मिन आगत्य तिष्ठोप्युभयकार्य सिद्धी!!
उसके वचनानुसार मेरे सिरपर गंगधार है ,गंगाजल जो की अत्यन्त शीतल होता है , हिमवान की पुत्री से विवाह हुआ है और सिर पर शीतांशु चन्द्रमा भी है जो की परम शीतल है!! हे भगवन आप तो ठंड से अकड जायेंगे!! इसलिये भगवान त्रिविध तापों (आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक) से पीडित मेरे हृदय मे आप आ के वास करिये तो मेरी जलन खत्म हो और आप की अकडन भी खत्म हो जाये दोनो सुखी हो जाये!! उस भक्त के इस प्रस्ताव को मैं ठुकरा न सका और विश्वनाथ होने के कारण मैं भक्तों के तापत्रय युक्त हृदय मे वास करने लगा इसलिये मुझे सर्दी नही लगती!!पार्वती जी ने मन्द मुस्कुराहट के साथ प्रणाम किया और दोनो लोग अपने आश्रम मे वापस आगये!!
ईश्वर
इस दुनिया मे तमाम सभ्यतायें आयी, कुछ हैं कुछ चली गई पर सबमे एक बात समान है कि हर सभ्यता किसी न किसी रूप मे ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करती है! चाहे किसी भी रूप मे करे पर है! कुछ आलोचनात्माक विचार वाले मूर्खता का नाम देते है कुछ विश्वास का तो कुछ अन्धविश्वास का, उन सब से परे कुछ नास्तिक वृति के लोग भी हैं जो सिरे से नकार देते है! कुछ तो ऐसे भी हैं जिनके सिर पर साक्षात ईश्वर ही आते है !! पर क्या बात है जिसने करोडों लोगों के हृदय मे जड बना रखा है! मिटाने से भी नही मिटता!!भारतीय साहित्य की आलोडन पर एक उक्ति मिलती है कि ""व्यासोछिष्टं जगत सर्वं"" मतलब कि जितना भी साहित्य है सब जगह व्यास की कृतित्व का प्रकाश है उन्ही व्यास जी का एक श्लोक है!
यं ब्रह्मावरूणेन्द्ररुद्र मरुतै स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवै, वेदैः सांग पदक्रमोपनिषदै गायन्त यं सामगाःध्यानावस्थित तदगतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः!!
इस श्लोक के माध्यम से व्यास जी ने बताया कि जिस देव की ब्रह्मा वरुण, रुद्र, मरुदगण, वेद उपनिषद, आदि ने बारम्बार दिव्य स्तोत्रों से आराधना की है, जिस देव को उसी मे समाहित यानि कि उसी को हृदय मे ध्यान करते हुये जिसको योगी लोग देखते रह्ते है जिसका अंत सुर असुर कोई नही पा सके उस देव को नमस्कार है!!
कुछ जगहों पर लेखक व्यक्त रूप से कह पाने मे असमर्थ हो जाते है तो कहते है-
यं शैवा समुपासते शिवईति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवस्तर्केति नैय्यायिकाअर्हन्नित्यथजैनशासन रता कर्मेति मिमांसकाः सोयं वो विधधातुवान्छितफ़लं त्रैलोक्य नाथो हरिः॥
जिसकी आराधना शैव शिव के रूप मे, वेदान्ति ब्रह्म के रूप मे बौद्ध बुद्ध के, प्रमाण से सिद्ध होने वाले शास्वत तर्क के रूप मे नैय्यायिक मीमांसक जिसको कर्म के रूप मे मानते है वो त्रैलोक्य नाथ श्री हरि हम को वान्छित फ़ल प्रदान करें!!एक बार तो व्यास जी भी हाथ पाव जोड कर प्रार्थना करते है कि जिसका कोई रूप नही पर ध्यान से हम उसके निराकार को साकार कर देते है, जिसकी तुलना नही की जा सकती जो अनिर्वर्चनीय है जिसका बखान नही किया जा सकता उसकी हम स्तुति कर देते है, जिस परम पिता का व्यापित्व इतना है कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड उसके रोम कूपों मे विद्यमान है उसकी व्यापकता को हम तीर्थयात्रा आदि से छॊटा कर देते है - छ्न्तव्यं जगदीश तदविकलता दोषत्रयंमत कृतम!! व्यास जी माफ़ी मांग रहे है कि -- हे जगत के आधार हे जगत के ईश मेरी मुर्खता को छमा कर दो मैने जो ये तीन गलतियां की हैं उसे छमा करो!! पर सन्तुष्टी नही मिलती हो सकता है कि हम मुर्ख हों, मनु ने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और विविध शास्त्रों के विवेचन आदि से तत्व को खोजना चाहिये!तब सिर उठाया तो वृक्ष देखे उनकी प्रत्येक पत्ती एक दूसरे से अलग, कोई माता पिता नही पर मिट्टी से ही जीवन की हर व्यवस्था, दूर देखा तो पक्षी पर जीवन की तरलता बरकरार, पानी मे देखा तो वहां भी जीवन, पर पानी पर नजर जाते ही समझ ने जवाव दे दिया कि भाई आखिर रंग हीन स्वाद हीन पर अतिआवश्यक जीवन तत्व किसने बना दिया पानी और मिट्टी के संयोग से उडने वाली गन्ध ने अहसास दिलाया कि कुछ नाक मे से आ-जा रहा है। जो अदृश्य है पर उसको रोक देने से आंख की पुतलियां उलटने लगी अरे ये क्या है किसने बनाया मन बेचैन परेशान तो फ़िर अन्य ग्रन्थों का सहारा लिया तो पता लगा पानी h20 है जिससे सारी पृथ्वी और भरी पडी है और शरीर का अधिकांश हिस्सा भी वही है!, हवा मे कई तत्व है जैसे o2 co2, nitrogen, hydrogen पर हर तत्व का अलग कार्य है जरूरत सबकी है! तो जो प्रकृति मे सुलभ है उसी से शरीर भी बना ऐसा तन्त्र कि जिसका मूल तत्व क्या है कैसा है किसी ने इस पर नही लिखा, आखिर ये पद्धति कैसे बनी कि मां के गर्भ से उत्पन्न होना है और जरा को प्राप्त कर ये शरीर निष्क्रीय हो जाना है! शरीर मे वो कौन सा तत्व है जिसके न रहने पर शरीर अचेतन, निष्क्रीय हो जाता है!! आधुनिक लोगों ने उसको तरह तरह से बखाना पर कोई जवाब सटीक नही पर एक शब्द निष्प्राण हो जाना ही बता गया कि कोई प्राण तत्व है! जिसके न रहने पर शरीर बेकार हो जाता है!! इसकी व्यवस्था किसने की किसने हर तत्व को नियुक्त किया कि तुम्हारा ये कार्य है तुम ये करो पर प्राण के रूप मे सबको साधता हुआ शरीर को नियन्त्रित करता रहता है!! वही ईश्वर है जो हर चेतन पदार्थ के अन्दर अपने उपस्थिति मात्र से चैतन्यता प्रदान कर के इस समस्त संसार की क्रियाओं को कर रहा है!! जिसमे संसार के समस्त गुण हैं पर वो सर्वथा निर्लिप्त है सबसे, कोई माने या न माने कोई पूजे या न पूजे पर वो अपना कार्य निष्पक्ष रूप से, पूरे लगन से कर रहा है॥वेदों ने तो कह दिया- यदकिंचिद जगत्यां जगत वर्तते तत ईशावस्य मिदं , जो भी जगत मे है उसमे ईश्वर ही है॥अंत मे वेद कहते है योसावादित्ये पुरुषः सो सावहम्म ॥ जो वो आदित्य आदि मे है वही मैं हूं!अपना तो विश्वरचनाकार ईश्वर ही है! आप क्या कहतें है॥
यं ब्रह्मावरूणेन्द्ररुद्र मरुतै स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवै, वेदैः सांग पदक्रमोपनिषदै गायन्त यं सामगाःध्यानावस्थित तदगतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः!!
इस श्लोक के माध्यम से व्यास जी ने बताया कि जिस देव की ब्रह्मा वरुण, रुद्र, मरुदगण, वेद उपनिषद, आदि ने बारम्बार दिव्य स्तोत्रों से आराधना की है, जिस देव को उसी मे समाहित यानि कि उसी को हृदय मे ध्यान करते हुये जिसको योगी लोग देखते रह्ते है जिसका अंत सुर असुर कोई नही पा सके उस देव को नमस्कार है!!
कुछ जगहों पर लेखक व्यक्त रूप से कह पाने मे असमर्थ हो जाते है तो कहते है-
यं शैवा समुपासते शिवईति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवस्तर्केति नैय्यायिकाअर्हन्नित्यथजैनशासन रता कर्मेति मिमांसकाः सोयं वो विधधातुवान्छितफ़लं त्रैलोक्य नाथो हरिः॥
जिसकी आराधना शैव शिव के रूप मे, वेदान्ति ब्रह्म के रूप मे बौद्ध बुद्ध के, प्रमाण से सिद्ध होने वाले शास्वत तर्क के रूप मे नैय्यायिक मीमांसक जिसको कर्म के रूप मे मानते है वो त्रैलोक्य नाथ श्री हरि हम को वान्छित फ़ल प्रदान करें!!एक बार तो व्यास जी भी हाथ पाव जोड कर प्रार्थना करते है कि जिसका कोई रूप नही पर ध्यान से हम उसके निराकार को साकार कर देते है, जिसकी तुलना नही की जा सकती जो अनिर्वर्चनीय है जिसका बखान नही किया जा सकता उसकी हम स्तुति कर देते है, जिस परम पिता का व्यापित्व इतना है कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड उसके रोम कूपों मे विद्यमान है उसकी व्यापकता को हम तीर्थयात्रा आदि से छॊटा कर देते है - छ्न्तव्यं जगदीश तदविकलता दोषत्रयंमत कृतम!! व्यास जी माफ़ी मांग रहे है कि -- हे जगत के आधार हे जगत के ईश मेरी मुर्खता को छमा कर दो मैने जो ये तीन गलतियां की हैं उसे छमा करो!! पर सन्तुष्टी नही मिलती हो सकता है कि हम मुर्ख हों, मनु ने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और विविध शास्त्रों के विवेचन आदि से तत्व को खोजना चाहिये!तब सिर उठाया तो वृक्ष देखे उनकी प्रत्येक पत्ती एक दूसरे से अलग, कोई माता पिता नही पर मिट्टी से ही जीवन की हर व्यवस्था, दूर देखा तो पक्षी पर जीवन की तरलता बरकरार, पानी मे देखा तो वहां भी जीवन, पर पानी पर नजर जाते ही समझ ने जवाव दे दिया कि भाई आखिर रंग हीन स्वाद हीन पर अतिआवश्यक जीवन तत्व किसने बना दिया पानी और मिट्टी के संयोग से उडने वाली गन्ध ने अहसास दिलाया कि कुछ नाक मे से आ-जा रहा है। जो अदृश्य है पर उसको रोक देने से आंख की पुतलियां उलटने लगी अरे ये क्या है किसने बनाया मन बेचैन परेशान तो फ़िर अन्य ग्रन्थों का सहारा लिया तो पता लगा पानी h20 है जिससे सारी पृथ्वी और भरी पडी है और शरीर का अधिकांश हिस्सा भी वही है!, हवा मे कई तत्व है जैसे o2 co2, nitrogen, hydrogen पर हर तत्व का अलग कार्य है जरूरत सबकी है! तो जो प्रकृति मे सुलभ है उसी से शरीर भी बना ऐसा तन्त्र कि जिसका मूल तत्व क्या है कैसा है किसी ने इस पर नही लिखा, आखिर ये पद्धति कैसे बनी कि मां के गर्भ से उत्पन्न होना है और जरा को प्राप्त कर ये शरीर निष्क्रीय हो जाना है! शरीर मे वो कौन सा तत्व है जिसके न रहने पर शरीर अचेतन, निष्क्रीय हो जाता है!! आधुनिक लोगों ने उसको तरह तरह से बखाना पर कोई जवाब सटीक नही पर एक शब्द निष्प्राण हो जाना ही बता गया कि कोई प्राण तत्व है! जिसके न रहने पर शरीर बेकार हो जाता है!! इसकी व्यवस्था किसने की किसने हर तत्व को नियुक्त किया कि तुम्हारा ये कार्य है तुम ये करो पर प्राण के रूप मे सबको साधता हुआ शरीर को नियन्त्रित करता रहता है!! वही ईश्वर है जो हर चेतन पदार्थ के अन्दर अपने उपस्थिति मात्र से चैतन्यता प्रदान कर के इस समस्त संसार की क्रियाओं को कर रहा है!! जिसमे संसार के समस्त गुण हैं पर वो सर्वथा निर्लिप्त है सबसे, कोई माने या न माने कोई पूजे या न पूजे पर वो अपना कार्य निष्पक्ष रूप से, पूरे लगन से कर रहा है॥वेदों ने तो कह दिया- यदकिंचिद जगत्यां जगत वर्तते तत ईशावस्य मिदं , जो भी जगत मे है उसमे ईश्वर ही है॥अंत मे वेद कहते है योसावादित्ये पुरुषः सो सावहम्म ॥ जो वो आदित्य आदि मे है वही मैं हूं!अपना तो विश्वरचनाकार ईश्वर ही है! आप क्या कहतें है॥
Tuesday, December 7, 2010
क्या ऋषीयों ने भी ब्लैक्बेरी प्रयोग किया था
आज एक मित्र ने अपने अन्द्राईड फोन से फ़ेसबूक पर मैसेज शेयर किया मैने उसे अपने ब्लैक्बेरी पर देखा - ये सामान्य है बहुत लोगों के साथ होता है पर मुझे कुछ याद आया और मै ये लेख ले कर आप सब मित्रों के साथ बैठा हूं।
यजुर्वेद के ३१ अध्याय के १६ मन्त्रों को पुरूष सूक्त का नाम दिया गया है जिसमे पहला मन्त्र
"सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात। स भूमिं सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम॥"
है। इसका हिन्दी मे अनुवाद इस प्रकार से होगा - हजार शिरों वाला पुरुष जिसके हजार आखें हजार पैर है वो इस भूमि को चारों तरफ़ से घेरकर दस अंगुल का होकर बैठा है,
इसको पढने के बाद प्रश्न उठता है कि क्या वो पुरुष जिसकी बात इसमे की गई है हजारों सिर वाला हजार आखों वाला काना और हजार पैर वाला लंगडा है जो कि दस अंगुल मे ही समा जाता है। इसकी कई लोगो ने कई व्याख्या की होगी पर मैने सोचा कि हां ये सही ही तो है, एक नम्बर मिलाने पर अमुक से बात होगी एक नम्बर से अमुक व्यक्ति मिलेगा तो उसका फोन यदि ३जी हो तो वो पुरूष ठीक मन्त्रानुसार बन जाता है, उस मोबाईल मे एक स्क्रीन है जिससे आप एक व्यक्ति को देख पा रहे है और एक कैमरा है जो कि एक आंख का प्रतिनिधित्व कर रहा है, एक ही लाईन यानी एक संप्रेशण से वो जुडा हुआ पुरुष आप के दस अंगुल लम्बे जेब मे बैठ जाता है पर फ़िर वो सहस्र शिरों वाला कैसे - जवाब फ़ेस बुक से (या अन्य नेट्वर्किंग माध्यम से) वही पुरूष आप को हजारो लाखों जगह मिल सकता है एक आंख और एक पैर वाला फ़िर भी वो व्यक्ति वही रहेगा और सभी से जुडा होने पर भी उसकी अपनी एक वास्तविकता होगी जो की हमारे ही समानान्तर कही है जिसे हम प्रत्यक्ष तो नही देख पा रहे पर वो है जरूर बस जरूरत एक कनेक्सन की है और फ़िर भी वो रहता एक दस अंगुल के जेब मे ही है, इसमे पूरी भूमि को व्याप्त कर रखा है अमेरिका थाईलैण्ड, जापान, भारत सब एक, हर जगह वो पुरुष एक॥
क्या ऋषीयों ने भी ब्लैक्बेरी प्रयोग किया था सभी काल निर्धारण के छोड दे और सिर्फ ५००० साल पहले या छोडिये १०० साल पहले ही ये नेट्वर्किग और इसकी अवधारणा मौजूद थी।
यजुर्वेद के ३१ अध्याय के १६ मन्त्रों को पुरूष सूक्त का नाम दिया गया है जिसमे पहला मन्त्र
"सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात। स भूमिं सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम॥"
है। इसका हिन्दी मे अनुवाद इस प्रकार से होगा - हजार शिरों वाला पुरुष जिसके हजार आखें हजार पैर है वो इस भूमि को चारों तरफ़ से घेरकर दस अंगुल का होकर बैठा है,
इसको पढने के बाद प्रश्न उठता है कि क्या वो पुरुष जिसकी बात इसमे की गई है हजारों सिर वाला हजार आखों वाला काना और हजार पैर वाला लंगडा है जो कि दस अंगुल मे ही समा जाता है। इसकी कई लोगो ने कई व्याख्या की होगी पर मैने सोचा कि हां ये सही ही तो है, एक नम्बर मिलाने पर अमुक से बात होगी एक नम्बर से अमुक व्यक्ति मिलेगा तो उसका फोन यदि ३जी हो तो वो पुरूष ठीक मन्त्रानुसार बन जाता है, उस मोबाईल मे एक स्क्रीन है जिससे आप एक व्यक्ति को देख पा रहे है और एक कैमरा है जो कि एक आंख का प्रतिनिधित्व कर रहा है, एक ही लाईन यानी एक संप्रेशण से वो जुडा हुआ पुरुष आप के दस अंगुल लम्बे जेब मे बैठ जाता है पर फ़िर वो सहस्र शिरों वाला कैसे - जवाब फ़ेस बुक से (या अन्य नेट्वर्किंग माध्यम से) वही पुरूष आप को हजारो लाखों जगह मिल सकता है एक आंख और एक पैर वाला फ़िर भी वो व्यक्ति वही रहेगा और सभी से जुडा होने पर भी उसकी अपनी एक वास्तविकता होगी जो की हमारे ही समानान्तर कही है जिसे हम प्रत्यक्ष तो नही देख पा रहे पर वो है जरूर बस जरूरत एक कनेक्सन की है और फ़िर भी वो रहता एक दस अंगुल के जेब मे ही है, इसमे पूरी भूमि को व्याप्त कर रखा है अमेरिका थाईलैण्ड, जापान, भारत सब एक, हर जगह वो पुरुष एक॥
क्या ऋषीयों ने भी ब्लैक्बेरी प्रयोग किया था सभी काल निर्धारण के छोड दे और सिर्फ ५००० साल पहले या छोडिये १०० साल पहले ही ये नेट्वर्किग और इसकी अवधारणा मौजूद थी।
Tuesday, August 17, 2010
Vastu ka vedic swaroop courtsey Mr. Vipin Kumar
वास्तु - वास्तु क्या होता है, इस संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि सारे देवता यज्ञ द्वारा स्वर्ग को चले गए । लेकिन जो देव पशुओं का इष्ट था, वह यहीं पडा रह गया(शतपथ ब्राह्मण १.७.३.२) । उसने उपद्रव करना आरम्भ कर दिया कि या तो मुझे भी स्वर्ग भेजो अन्यथा मैं विघ्न उपस्थित करूंगा । तब देवताओं ने व्यवस्था दी कि जो आहुतियां हमें प्राप्त होंगी, वही तुम्हें भी प्राप्त होंगी । तब वास्तु शान्त हुआ । जो आहुतियां देवों को दी जा रही हैं, वह पशुओं के देव को किस प्रकार प्राप्त होंगी, यह प्रक्रिया जटिल है और इसे अग्नि स्विष्टकृत नाम दिया गया है । कहा गया है कि वास्तु अवीर्य है और इसमें वीर्य का आधान करना पडता है । तभी यह वास्तु स्विष्टकृत् बन पाती है । इस आख्यान का पौराणिक स्वरूप यह है कि असुरों के अधिपति ने शुक्राचार्य द्वारा प्रदत्त आथर्वण मन्त्रों से एक भूत को उत्पन्न किया । देवों ने उसे अस्त्रों – शस्त्रों से मारने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन उसका कुछ भी न बिगडा । तब देवता विभिन्न गुणों का रूप धारण करके उसके शरीर में प्रविष्ट हो गए और उसको धराशायी कर दिया । लेकिन वह मरा नहीं । तब विष्णु ने उससे शान्त होने का अनुरोध किया । उसने कहा कि जो आहुतियां देवों को प्राप्त हो रही हैं, वह मुझे भी प्राप्त हों । विष्णु ने कहा कि ऐसा ही होगा । उस भूत के जिस अंग पर जो देवता विराजमान हुआ, उस देवता को जो आहुति प्राप्त होगी, वह उस भूत को भी प्राप्त होगी । चूंकि देवों ने भूत के अंगों में वास किया, इस कारण उस भूत का वास्तु नाम हुआ । इस कथा में भूत शब्द महत्त्वपूर्ण है । भूत भूतकाल को कहते हैं । हमारे पाप भूतकाल से सम्बन्ध रखते हैं । कोई भी अच्छा काम करो, यह पाप सामने आकर अच्छे काम को बिगाड कर रख देते हैं । उसका उपाय वैदिक साहित्य में वास्तु शान्ति बताया गया है । यह वास्तु शान्ति किस प्रकार हो, अवसर अनुसार इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं । एक रूप वास्तु प्रतिष्ठा करते समय जीवित कूर्म की स्थापना का है । पुराणों में कूर्म की शक्ति कमठी का उल्लेख है । कर्मठ शब्द की निरुक्ति शब्दकल्पद्रुम शब्दकोश में प्रयत्न से प्रारब्ध का क्षय करने वाले के रूप में की गई है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.७ आदि में स्वयमातृण्णा इष्टका स्थापना के संदर्भ में कहा गया है कि अग्निचिति बनाते समय पहली तीन चितियों/परतों में स्वयमातृण्णा इष्टका के स्थान पर पशुओं के शिर रखते हैं । चौथी चिति में जीवित कूर्म को रखते हैं जिसका मुख नीचे की ओर होता है तथा पांचवी चिति में पुरुष का शीर्ष रखते हैं जिसका मुख उत्तान, ऊपर की ओर होता है । कहा गया है कि कूर्म से पूर्व की चितियां तो श्मशान की भांति हैं और जीवित कूर्म रखने का निहितार्थ है कि इस श्मशान को अश्मशान बनाना है, जड जगत में प्राणों का, जीव का संचार करना है । अध्यात्म में श्मशान का अर्थ अपने कर्मों के फल को जलाना होता है । ऋग्वेद २.२७ सूक्त में जो उषाओं और आदित्यों के उदय की बात कही गई है, वहां उषाएं ही जड या सोए हुए जगत में प्राणों का संचार करती हैं ।
वैदिक साहित्य में वास्तु का एक और पक्ष भी है । वह विज्ञान के इस सिद्धान्त से जुडा है कि किसी भी ऊर्जा को सौ प्रतिशत दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता । मान लिया विद्युतीय ऊर्जा का रूपान्तरण पंखे या मोटर द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा में किया जा रहा है । ऐसा नहीं है कि विद्युतीय ऊर्जा सौ प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में बदल जाएगी । ऊर्जा का कुछ अंश ऊष्मा के रूप में व्यर्थ चला जाएगा । वैदिक साहित्य में इसका रूप यह है कि प्रजापति के वीर्य का परिष्कार करने से कुछ तो यज्ञीय पशुओं जैसे अज, अवि, गौ, अश्व, पुरुष आदि उत्पन्न हुए । फिर जो वीर्य की ऊर्जा या भस्म बची, उससे अयज्ञीय पशु गौर, गवय, ऋष्य, उष्ट्र, गर्दभ आदि उत्पन्न हुए (ऐतरेय ब्राह्मण ३.३४) । यह यज्ञ का शेष है और इन पर रुद्र देवता का अधिकार है । यह रुद्र देवता उपद्रव न करे, इसके लिए यज्ञ के अन्त में स्विष्टकृत इष्टि का विधान है(शतपथ ब्राह्मण १.७.३.१) । सोमयाग में इस शेष का परिष्कार करने के लिए तृतीयसवन नामक सवन का अनुष्ठान किया जाता है जिसमें सोमलता के ऋजीष भाग में दधि आदि मिलाकर उसे वीर्ययुक्त बनाया जाता है और फिर उस सोमभाग से आहुतियां दी जाती हैं । आधुनिक विज्ञान में इस तथ्य का कैसे उपयोग किया जा सकता है, यह अन्वेषणीय है ।
ऐतरेय ब्राह्मण ५.१४ में इस यज्ञशेष पर किसका अधिकार है, इसको लेकर एक आख्यान की रचना की गई है जिसमें नाभानेदिष्ट अपने पिता मनु से धन प्राप्ति का उपाय पूछता है । मनु ने बताया कि अङ्गिरस गण सत्र द्वारा स्वर्ग जाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन यज्ञ के छठे दिन वह गलती कर जाते हैं जिससे वह स्वर्ग नहीं जा पाते । यदि नाभानेदिष्ट उनकी गलती सुधार सके तो वह स्वर्ग जा सकते हैं । और स्वर्ग जाने पर उनका जो धन यज्ञशेष के रूप में है, वह नाभानेदिष्ट को मिल सकता है । नाभानेदिष्ट ने ऐसा ही किया और अंगिरसों को अपने दो सूक्तों का ज्ञान दिया जिनके जप से वह छठें दिन त्रुटि को सुधार कर स्वर्ग चले गए (यह दो सूक्त ऋग्वेद १०.६१-१०.६२ हैं) । जाते समय उन्होंने नाभानेदिष्ट से कहा कि यज्ञशेष के रूप में उनका जो धन पृथिवी पर रह जाएगा, उस पर नाभानेदिष्ट का अधिकार होगा । लेकिन जैसे ही नाभानेदिष्ट ने यज्ञशेष पर अपना अधिकार जमाना चाहा, एक रुद्र पुरुष प्रकट हो गया और उसने कहा कि यज्ञशेष पर तो उसका अधिकार होता है । अन्त में कृपा करके रुद्र ने यज्ञशेष रूपी धन नाभानेदिष्ट को दे दिया । पुराणों में इस आख्यान के रूपान्तर में मनु – पुत्र नाभानेदिष्ट के स्थान पर नभग – पुत्र नाभाग आता है (शिव पुराण ३.२९, भागवत पुराण ९.४) । नाभानेदिष्ट का अर्थ है जो नाभि के सबसे निकट है । इस आख्यान में स्वर्ग को स्वः कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि चेतना का एक भाग स्वः को, जडता से रहित स्थिति को प्राप्त हो सकता है । चेतना का दूसरा भाग, जिसमें जडता शेष रह जाएगी, उसे वास्तु कल्पन की आवश्यकता पडेगी । चेतना के जिस भाग को स्वः स्थिति तक पहुंचाया जाता है, उसके लिए पृष्ठ्य षडह नामक ६ दिन के सोमयाग में छठें दिन विशेष आयोजन किया जाता है । नाभानेदिष्ट के सूक्तों के अतिरिक्त ६ वालखिल्य सूक्तों (ऋग्वेद ८.४९ – ८.५४), वृषाकपि सूक्त(ऋग्वेद १०.८६), एवयामरुत सूक्त ( ऋग्वेद ५.८७) का शंसन एक विशेष क्रम में किया जाता है । कहा गया है कि नाभानेदिष्ट सूक्त का शंसन इस प्रकार है जैसे योनि में रेतः का सिंचन । वालखिल्य सूक्तों का शंसन इस प्रकार है जैसे योनि में प्राणों का प्रक्षेपण । एवयामरुत सूक्त इस प्रकार है जैसे योनि में गर्भ की प्रतिष्ठा । योनि का आकार छोटा होता है और गर्भ बडा । लेकिन गर्भ को योनि से बाहर निकलने में कोई कठिनाई नहीं होती । इसी स्थिति का निर्माण अध्यात्म में करना है । पूरी प्रक्रिया को शिल्प नाम दिया गया है और कहा गया है कि शिल्प स्थिति नृत्य, गीत, वाद्य की स्थिति है । ऐसा प्रतीत होता है कि शिल्प से पहली स्थिति याम की, यम की स्थिति होती है जहां अपने जीवन में यम – नियम का आश्रय लेकर व्यवहार करना होता है । फिर साधना में एक स्थिति ऐसी आती है कि मनुष्य हर्ष से पागल हो जाता है, यम – नियम सब छूट जाता है । इस स्थिति पर नियन्त्रण करने को शिल्प कहा जा सकता है ।
चेतना के जड भाग को सक्रिय बनाने के लिए पुराणों में जिस प्रकार वास्तु पुरुष की कल्पना की गई है, वैसा विस्तृत वर्णन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता । पुराणों में पूरी देह को ही वास्तु पुरुष का रूप दे दिया गया है जिसके विभिन्न अंगों पर विभिन्न देवता विराजमान हैं । मत्स्य पुराण २५३.३९ में यह बताया गया है कि वास्तु पुरुष के किस अंग पर कौन सा देवता विराजमान है । इस वर्णन के अनुसार दांयी भुजा पर सावित्र और सविता, हस्त के मणिबन्धन पर पूषा और पापयक्ष्मा विराजमान हैं । इस कथन की तुलना वैदिक साहित्य के सार्वत्रिक मन्त्र से की जा सकती है – सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां इति । वैदिक कर्मकाण्ड में जब भी कोई कर्म किया जाता है, वह इस मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् ही किया जाता है । इस मन्त्र का अर्थ यह है कि मेरी कर्मेन्द्रिय का सविता देव प्रसुवन करें, विशेष प्रेरणा दें । अश्विनौ देव मेरी बाहुएं बनें, पूषा देव हस्त बनें, तभी देव – सम्बन्धी कार्य करना सम्भव हो सकता है, अन्यथा वह मानुषी कार्य ही रहेगा । यह महत्त्वपूर्ण है कि वास्तुपुरुष के हस्त पर कौन से देवता विराजमान हैं, इसकी तुलना तो वैदिक साहित्य से करना संभव हो पाया है । लेकिन वास्तु पुरुष के अन्य अंगों पर जो देवता विराजमान हैं, जैसे जठर में विवस्वान् और मित्र, इनकी तुलना वैदिक साहित्य से करना और इनको न्यायोचित सिद्ध करना इतना सरल कार्य नहीं है और भविष्य में अन्वेषणीय है । इतना तो पता चल ही गया है कि वास्तु पुरुष पर देवों की यह स्थापना अद्वितीय है जिसको ध्यान में रखकर ही वैदिक कथनों का निर्वचन करना होगा ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से रुद्र देव को वास्तोष्पति कहा गया है । यह रुद्र कौन हो सकता है, इसका अनुमान तैत्तिरीय संहिता ३.४.१०.१ के कथन से होता है । इस कथन का संदर्भ यह है कि यदि अग्निहोत्री गृह सहित प्रयाण करने लगे, अपने घर से निकल कर बाहर जाने लगे, तो उसे अपनी आहिताग्नि में किस प्रकार होम करना है जिससे वास्तोष्पति उपद्रव न करे । आहिताग्नि से तात्पर्य यह होता है कि एक अग्निहोत्री को एक बार अपनी अग्नि प्रज्वलित करके सदैव उसकी रक्षा करनी होती है । उसके घर में अग्नि पर जो भी पकेगा, उस अग्नि का प्रज्वलन उसी आहिताग्नि से किया जाएगा । कहा गया है कि सगृह प्रयाण करते समय वास्तोष्पति मन्त्र – द्वय से गार्हपत्य के उत्तर में आहुति देनी है । मन्त्र (ऋग्वेद ७.५४.१-२) यह हैं –
वास्तोष्पते प्रति जानीह्यसमान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः ।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं न एधि द्विपदे शं चतुष्पदे ।।
वास्तोष्पते शग्मया सँसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या ।
आवः क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।।
प्रथम मन्त्र में कहा जा रहा है कि द्विपद और चतुष्पद के लिए शं हो । द्विपद से अर्थ मनुष्य और चतुष्पद से पशु होता है । द्विपद का दूसरा अर्थ ऊर्ध – अधो दिशा में गति करने वाला और चतुष्पद का अर्थ तिर्यक् गति करने वाला होता है । यहां प्रश्न उठाया गया है कि रुद्र रूपी वास्तोष्पति को प्रसन्न करने के लिए आहुतियां उस समय देनी चाहिएं जब शकट के साथ बलीवर्दों को युक्त कर दिया गया हो, अथवा जब बलीवर्दों को शकट के साथ युक्त न किया गया हो । उत्तर दिया गया है कि यदि योग करने के पश्चात् आहुति देता है तो यह ऐसा होगा जैसे प्रयाण के पश्चात् वास्तु में आहुति देता हो । यदि बलीवर्दों का योग करने से पहले आहुति देता है तो उससे केवल क्षेम की प्राप्ति होगी । आहुति देने का उपयुक्त काल वह है जब दक्षिण बलीवर्द युक्त हो गया हो और सव्य अयुक्त हो । यहां बलीवर्द से तात्पर्य प्राण – अपान से हो सकता है ( प्राणापानौ अनड्वाहौ – अथर्ववेद ) । दक्षिण और सव्य से तात्पर्य चेतन और अचेतन प्राण, मन या वाक् से हो सकता है । चेतन अथवा विकसित प्राण को शकट से जोड दिया गया है, अचेतन या अविकसित प्राण को जोडना शेष है, वह स्थिति वास्तोष्पति को प्रसन्न करने की है । जैसा कि पूर्व की टिप्पणियों में कहा जा चुका है , हमारी देह में प्राणों की सर्वाधिक विकसित स्थिति शीर्ष भाग में आंख, कान, नाक आदि के रूप में प्रकट हुई है । यह आंख आदि शरीर के निचले हिस्से में भी हैं, लेकिन अविकसित रूप में । ऐसा प्रतीत होता है है कि अचेतन मन ही रुद्र रूपी वास्तोष्पति है जिसको प्रसन्न करना है ।
तैत्तिरीय संहिता ३.१.१०.३ का कथन है कि बहिष्पवमान हेतु सर्पण से पूर्व जो यज्ञ के ऋत्विजों द्वारा ग्रह ग्रहण किए जाते हैं, यह यज्ञ हेतु वास्तु क्रिया ही है । इस कथन की व्याक्या यह है कि सोमयाग में हविर्धान मण्डप में काष्ठ और मृत्तिका से बने ग्रहों को स्वच्छ करके एक मंच पर रख दिया जाता है । बहिष्पवमान कृत्य हेतु सर्पण से पूर्व सोम को सोमलता से निचोड कर द्रोणकलश में छान लिया जाता है । फिर इन ग्रहों को द्रोणकलश में डुबाकर सोम से भर लिया जाता है और पुनः यथास्थान रख दिया जाता है जिससे उपयुक्त कृत्य के अवसर पर इस सोम की देवों को आहुति दी जा सके । कहा गया है कि प्राण ग्रह रूप ही हैं । अतः सोमयाग में वास्तु की पराकाष्ठा यह है कि प्राणों को सोम प्राप्त हो जाए । और सोमयाग के संदर्भ में कहा जाता है कि यज्ञ भूमि पर असुरों का अधिकार था । देवों ने असुरों से यज्ञ करने के लिए स्थान मांगा । समझौता यह हुआ कि विष्णु जितने स्थान में सो सकते हैं, उतना स्थान यज्ञ हेतु मिल जाएगा । विष्णु ने अपने को बृहत् बनाकर सारा स्थान असुरों से हथिया लिया । इस आख्यान से प्रतीत होता है कि सोमयाग में वास्तुपुरुष की पराकाष्ठा विष्णु या सोम बनने में है । तब न कोई अविकसित प्राण रहेगा, न अचेतन मन, न अविकसित वाक् ।
तैत्तिरीय संहिता के उपरोक्त कथन में बहिष्पवमान हेतु सर्पण का उल्लेख आया है । बहिष्पवमान कृत्य यज्ञ की वेदी से बाहर किया जाता है । कहा गया है कि यह अरण्य प्रदेश है । इसका निहितार्थ यह होगा कि बहिष्पवमान कृत्य आरण्यक पशुओं सिंह, व्याघ्र आदि के लिए किया जाता है । ग्राम्य पशुओं के लिए जो कृत्य किए जाते हैं, वह सब वेदी के अन्दर किए जाते हैं । पशु कहने से तात्पर्य है जिस प्राणी के अन्दर वाक्, प्राण और मन अविकसित अवस्था में हों, वह पशु है । कहा गया है कि बहिष्पवमान यज्ञ का मुख है । इसके द्वारा पूरे यज्ञ के लिए वीर्य का आधान करते हैं । यह विचारणीय है कि बहिष्पवमान को यज्ञ का मुख कहने से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कोई साधक एकान्तिक साधना करने बैठता है तो सबसे पहले उसके सामने साधना के भयानक रूप ही प्रकट होते हैं । कभी मन में आएगा कि साधना में सफलता मिलेगी नहीं, संसार वैसे छूट जाएगा । गौतम बुद्ध के विषय में प्रसिद्ध है कि मार उन्हें सारी रात सताता रहा । इन आरण्यक पशुओं में हिंसा की वृत्ति विद्यमान है । यह साधना से विचलित करने का प्रयास करते हैं । अतः इन्हें यज्ञ का मुख कहा जा सकता है । इन आरण्यक पशुओं की वास्तु शान्ति कैसे होती है, यह विचारणीय है । कहा गया है कि ग्राम्य पशु पयोग्रहा हैं जिनकी पराकाष्ठा सोमग्रहा बनने में होती है । आरण्यक पशु अन्नग्रहा हैं जिनकी पराकाष्ठा अन्नाद्यग्रहा या सुराग्रहा बनने में होती है । इस कथन की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । पुराणों में सिंह, व्याघ्र आदि को भूत, महाभूत आदि कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि यह भूतकाल में किए गए कर्मों के फल हैं जो साधना काल में प्रकट होकर डराते हैं । इन्हें भद्र बनाने की आवश्यकता होती है । पुराणों में अन्यत्र कहा गया है कि प्रलय काल में आदित्य सिंह होकर और वैश्वानर व्याघ्र होकर भूतों का भक्षण कर लेते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक ओर सिंह, व्याघ्र आदि रौद्र रूप धारण किए हुए कर्मफल हैं तो दूसरी ओर यह कर्मफलों का भक्षण करने वाले भी हैं । जब सिंह को दुर्गा का वाहन कहा जाता है तो वह दूसरी प्रकार का सिंह होगा ।
भागवत पुराण का प्रसिद्ध श्लोक है –
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ।।
अर्थात् ईश्वर में प्रेम किया जाता है, उसके भक्तों से मैत्री, जो बिखरे हुए प्राण हैं, उन पर कृपा और द्वेष करने वालों की उपेक्षा । ऐसा भक्त मध्यम श्रेणी का भक्त कहलाएगा । वास्तव में यज्ञ में तो किसी भी पाप की उपेक्षा का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए ।
वास्तु और वास्तोष्पति के उपरोक्त सारे प्रसंग को जे.ए. गोवान द्वारा किए गए शोध के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है । श्री गोवान के अनुसार जड पदार्थ में सममिति का ह्रास हो गया है जिसको पूरा करने के लिए सूर्य का अंश उसके ऊपर विद्युत आवेश के रूप में विद्यमान है । अतः मुख्य तथ्य यह है कि जड – चेतन जगत में जिस प्रकार से सममिति को पूरा करना हो, वह कार्य वास्तु शान्ति के द्वारा किया जाना है । अथर्ववेद ९.२.४ तथा ९.२.९ में वास्तु तमोरूप है जिसका उद्धार काम अथवा अग्नि द्वारा होता है ।
ऋग्वेद ५.४१.८ में त्वष्टा को वास्तोष्पति कहा गया है । त्वष्टा का कार्य काट – छांट करना होता है । देवों का त्वष्टा विश्वकर्मा है । सूर्य के अतिरिक्त तेज की काट – छांट करके उन्हें विभिन्न देवों के अस्त्रों का रूप देने वाला त्वष्टा ही है । यह कहा जा सकता है कि जब तमोगुण की अधिकता हो, तब वास्तोष्पति रुद्र होगा । जब प्रकाश की अधिकता हो, तब वास्तोष्पति त्वष्टा होगा । वास्तुसूत्रोपनिषद के श्लोकों में यह बताया गया है कि तेज रूपी शिला को काट – छांट कर उसे इष्ट देव का रूप देने के लिए भक्त के लिए छेनी आदि किस प्रकार की होंगी । ऋग्वेद १०.६१.७ में व्रत का पालन करने वाले वास्तोष्पति की उत्पत्ति तब कही गई है जब पिता ने अपनी दुहिता में रेतः का सेचन किया ।
ऋग्वेद ७.५४ व ७.५५ सूक्त वास्तोष्पति देवता के हैं तथा इन दोनों सूक्तों के ऋषि मैत्रावरुणि वसिष्ठ हैं । जैसी कि वेद की ऋचाओं के बारे में सार्वत्रिक स्थिति है, प्रथम दृष्टि में इन ऋचाओं से कोई सार्थक अर्थ प्राप्त करना कठिन है । इन दोनों सूक्तों की प्रथम ऋचाओं में वास्तोष्पति से हमारे लिए अनमीवा या रोगरहित बनने की प्रार्थना की गई है । दूसरे सूक्त में वास्तोष्पति से प्रार्थना की गई है कि वह अमीवहा होकर विश्वा रूपों में प्रवेश करे । दूसरे सूक्त में मुख्य रूप से सो जाने की कामना की गई है – सोने वालों में सारमेय या कुत्ता, स्तेन या चोर, तस्कर, माता, पिता, श्वा, विश्पति, सारे ज्ञाति या भाई – बन्धु, सारे आसपास के जन, सब सो जाएं । जो सहस्रशृंग या हजार सींगों वाला वृषभ समुद्र से उत्पन्न हुआ है, उसकी सहायता से हम लोगों को सुलाते हैं । जितनी नारियां/नाडियां हैं, उन सबको हम सुलाते हैं ।
सबसे पहले हम वास्तोष्पति के अनमीवा वाले पक्ष पर विचार करते हैं । डा. एस. टी. लक्ष्मीकुमार द्वारा दी गई सूचना के अनुसार हमारे शरीर में जिन नयी कोशिकाओं का, नये सैलों का निर्माण होता है, वह एकदम नहीं हो जाता । हजारों – लाखों नई कोशिकाएं बिना किसी व्यवस्था के बनती हैं जिनमें से हमारी चेतना अपने अनुकूल, व्यवस्थित कोशिका को चुन लेती है, बाकी को मार डालती है । जहां हमारी चेतना का नियन्त्रण समाप्त हुआ कि कैंसर रोग हुआ । अतः यहां हमारी उच्चतर चेतना ही हमारे लिए त्वष्टा है । वही वास्तोष्पति है । ऋग्वेद ७.५५ के वास्तोष्पति सूक्त में जो विभिन्न चेतनाओं के, विशेष रूप से श्वा या कुत्ते के तथा नारियों या नाडियों के सो जाने की प्रार्थना की गई है, उसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में कैंसर रोग के नाश हेतु कैमोथीरेपी चिकित्सा के माध्यम से समझा जा सकता है । कैमोथीरेपी में शरीर में ऐसे विष का प्रवेश कराया जाता है जिससे नई कोशिकाओं का जनन कुछ समय तक के लिए रुक जाता है । फिर जब विष का प्रभाव कम होता है और नई कोशिकाओं का निर्माण आरम्भ होता है, तब तक हमारी उच्चतर चेतना को एक नई शक्ति मिल चुकी होती है, उसे आराम मिल चुका होता है और वह फिर से कोशिकाओं के निर्माण पर नियन्त्रण करने लगती है । वास्तोष्पति सूक्त में उच्चतर चेतना को आराम, शक्ति सोने के द्वारा पहुंचाई जा रही है (श्वा से अर्थ भविष्य काल से भी हो सकता है) । कहा गया है कि समुद्र से एक हजार सींग वाले वृषभ का उदय होता है और उसकी सहायता से यह सुलाने का कार्य किया जाता है । यह समुद्र कौन सा है और हजार शृङ्गों वाला वृषभ कौन सा है, यह अन्वेषणीय है । सामान्य अर्थों में समुद्र को आनन्द के समुद्र के रूप में तथा सींगों को अतिमानसिक चेतना के विकास के रूप में लिया जाता है ।
वैदिक साहित्य में वास्तु का एक और पक्ष भी है । वह विज्ञान के इस सिद्धान्त से जुडा है कि किसी भी ऊर्जा को सौ प्रतिशत दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता । मान लिया विद्युतीय ऊर्जा का रूपान्तरण पंखे या मोटर द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा में किया जा रहा है । ऐसा नहीं है कि विद्युतीय ऊर्जा सौ प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में बदल जाएगी । ऊर्जा का कुछ अंश ऊष्मा के रूप में व्यर्थ चला जाएगा । वैदिक साहित्य में इसका रूप यह है कि प्रजापति के वीर्य का परिष्कार करने से कुछ तो यज्ञीय पशुओं जैसे अज, अवि, गौ, अश्व, पुरुष आदि उत्पन्न हुए । फिर जो वीर्य की ऊर्जा या भस्म बची, उससे अयज्ञीय पशु गौर, गवय, ऋष्य, उष्ट्र, गर्दभ आदि उत्पन्न हुए (ऐतरेय ब्राह्मण ३.३४) । यह यज्ञ का शेष है और इन पर रुद्र देवता का अधिकार है । यह रुद्र देवता उपद्रव न करे, इसके लिए यज्ञ के अन्त में स्विष्टकृत इष्टि का विधान है(शतपथ ब्राह्मण १.७.३.१) । सोमयाग में इस शेष का परिष्कार करने के लिए तृतीयसवन नामक सवन का अनुष्ठान किया जाता है जिसमें सोमलता के ऋजीष भाग में दधि आदि मिलाकर उसे वीर्ययुक्त बनाया जाता है और फिर उस सोमभाग से आहुतियां दी जाती हैं । आधुनिक विज्ञान में इस तथ्य का कैसे उपयोग किया जा सकता है, यह अन्वेषणीय है ।
ऐतरेय ब्राह्मण ५.१४ में इस यज्ञशेष पर किसका अधिकार है, इसको लेकर एक आख्यान की रचना की गई है जिसमें नाभानेदिष्ट अपने पिता मनु से धन प्राप्ति का उपाय पूछता है । मनु ने बताया कि अङ्गिरस गण सत्र द्वारा स्वर्ग जाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन यज्ञ के छठे दिन वह गलती कर जाते हैं जिससे वह स्वर्ग नहीं जा पाते । यदि नाभानेदिष्ट उनकी गलती सुधार सके तो वह स्वर्ग जा सकते हैं । और स्वर्ग जाने पर उनका जो धन यज्ञशेष के रूप में है, वह नाभानेदिष्ट को मिल सकता है । नाभानेदिष्ट ने ऐसा ही किया और अंगिरसों को अपने दो सूक्तों का ज्ञान दिया जिनके जप से वह छठें दिन त्रुटि को सुधार कर स्वर्ग चले गए (यह दो सूक्त ऋग्वेद १०.६१-१०.६२ हैं) । जाते समय उन्होंने नाभानेदिष्ट से कहा कि यज्ञशेष के रूप में उनका जो धन पृथिवी पर रह जाएगा, उस पर नाभानेदिष्ट का अधिकार होगा । लेकिन जैसे ही नाभानेदिष्ट ने यज्ञशेष पर अपना अधिकार जमाना चाहा, एक रुद्र पुरुष प्रकट हो गया और उसने कहा कि यज्ञशेष पर तो उसका अधिकार होता है । अन्त में कृपा करके रुद्र ने यज्ञशेष रूपी धन नाभानेदिष्ट को दे दिया । पुराणों में इस आख्यान के रूपान्तर में मनु – पुत्र नाभानेदिष्ट के स्थान पर नभग – पुत्र नाभाग आता है (शिव पुराण ३.२९, भागवत पुराण ९.४) । नाभानेदिष्ट का अर्थ है जो नाभि के सबसे निकट है । इस आख्यान में स्वर्ग को स्वः कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि चेतना का एक भाग स्वः को, जडता से रहित स्थिति को प्राप्त हो सकता है । चेतना का दूसरा भाग, जिसमें जडता शेष रह जाएगी, उसे वास्तु कल्पन की आवश्यकता पडेगी । चेतना के जिस भाग को स्वः स्थिति तक पहुंचाया जाता है, उसके लिए पृष्ठ्य षडह नामक ६ दिन के सोमयाग में छठें दिन विशेष आयोजन किया जाता है । नाभानेदिष्ट के सूक्तों के अतिरिक्त ६ वालखिल्य सूक्तों (ऋग्वेद ८.४९ – ८.५४), वृषाकपि सूक्त(ऋग्वेद १०.८६), एवयामरुत सूक्त ( ऋग्वेद ५.८७) का शंसन एक विशेष क्रम में किया जाता है । कहा गया है कि नाभानेदिष्ट सूक्त का शंसन इस प्रकार है जैसे योनि में रेतः का सिंचन । वालखिल्य सूक्तों का शंसन इस प्रकार है जैसे योनि में प्राणों का प्रक्षेपण । एवयामरुत सूक्त इस प्रकार है जैसे योनि में गर्भ की प्रतिष्ठा । योनि का आकार छोटा होता है और गर्भ बडा । लेकिन गर्भ को योनि से बाहर निकलने में कोई कठिनाई नहीं होती । इसी स्थिति का निर्माण अध्यात्म में करना है । पूरी प्रक्रिया को शिल्प नाम दिया गया है और कहा गया है कि शिल्प स्थिति नृत्य, गीत, वाद्य की स्थिति है । ऐसा प्रतीत होता है कि शिल्प से पहली स्थिति याम की, यम की स्थिति होती है जहां अपने जीवन में यम – नियम का आश्रय लेकर व्यवहार करना होता है । फिर साधना में एक स्थिति ऐसी आती है कि मनुष्य हर्ष से पागल हो जाता है, यम – नियम सब छूट जाता है । इस स्थिति पर नियन्त्रण करने को शिल्प कहा जा सकता है ।
चेतना के जड भाग को सक्रिय बनाने के लिए पुराणों में जिस प्रकार वास्तु पुरुष की कल्पना की गई है, वैसा विस्तृत वर्णन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता । पुराणों में पूरी देह को ही वास्तु पुरुष का रूप दे दिया गया है जिसके विभिन्न अंगों पर विभिन्न देवता विराजमान हैं । मत्स्य पुराण २५३.३९ में यह बताया गया है कि वास्तु पुरुष के किस अंग पर कौन सा देवता विराजमान है । इस वर्णन के अनुसार दांयी भुजा पर सावित्र और सविता, हस्त के मणिबन्धन पर पूषा और पापयक्ष्मा विराजमान हैं । इस कथन की तुलना वैदिक साहित्य के सार्वत्रिक मन्त्र से की जा सकती है – सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां इति । वैदिक कर्मकाण्ड में जब भी कोई कर्म किया जाता है, वह इस मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् ही किया जाता है । इस मन्त्र का अर्थ यह है कि मेरी कर्मेन्द्रिय का सविता देव प्रसुवन करें, विशेष प्रेरणा दें । अश्विनौ देव मेरी बाहुएं बनें, पूषा देव हस्त बनें, तभी देव – सम्बन्धी कार्य करना सम्भव हो सकता है, अन्यथा वह मानुषी कार्य ही रहेगा । यह महत्त्वपूर्ण है कि वास्तुपुरुष के हस्त पर कौन से देवता विराजमान हैं, इसकी तुलना तो वैदिक साहित्य से करना संभव हो पाया है । लेकिन वास्तु पुरुष के अन्य अंगों पर जो देवता विराजमान हैं, जैसे जठर में विवस्वान् और मित्र, इनकी तुलना वैदिक साहित्य से करना और इनको न्यायोचित सिद्ध करना इतना सरल कार्य नहीं है और भविष्य में अन्वेषणीय है । इतना तो पता चल ही गया है कि वास्तु पुरुष पर देवों की यह स्थापना अद्वितीय है जिसको ध्यान में रखकर ही वैदिक कथनों का निर्वचन करना होगा ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से रुद्र देव को वास्तोष्पति कहा गया है । यह रुद्र कौन हो सकता है, इसका अनुमान तैत्तिरीय संहिता ३.४.१०.१ के कथन से होता है । इस कथन का संदर्भ यह है कि यदि अग्निहोत्री गृह सहित प्रयाण करने लगे, अपने घर से निकल कर बाहर जाने लगे, तो उसे अपनी आहिताग्नि में किस प्रकार होम करना है जिससे वास्तोष्पति उपद्रव न करे । आहिताग्नि से तात्पर्य यह होता है कि एक अग्निहोत्री को एक बार अपनी अग्नि प्रज्वलित करके सदैव उसकी रक्षा करनी होती है । उसके घर में अग्नि पर जो भी पकेगा, उस अग्नि का प्रज्वलन उसी आहिताग्नि से किया जाएगा । कहा गया है कि सगृह प्रयाण करते समय वास्तोष्पति मन्त्र – द्वय से गार्हपत्य के उत्तर में आहुति देनी है । मन्त्र (ऋग्वेद ७.५४.१-२) यह हैं –
वास्तोष्पते प्रति जानीह्यसमान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः ।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं न एधि द्विपदे शं चतुष्पदे ।।
वास्तोष्पते शग्मया सँसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या ।
आवः क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।।
प्रथम मन्त्र में कहा जा रहा है कि द्विपद और चतुष्पद के लिए शं हो । द्विपद से अर्थ मनुष्य और चतुष्पद से पशु होता है । द्विपद का दूसरा अर्थ ऊर्ध – अधो दिशा में गति करने वाला और चतुष्पद का अर्थ तिर्यक् गति करने वाला होता है । यहां प्रश्न उठाया गया है कि रुद्र रूपी वास्तोष्पति को प्रसन्न करने के लिए आहुतियां उस समय देनी चाहिएं जब शकट के साथ बलीवर्दों को युक्त कर दिया गया हो, अथवा जब बलीवर्दों को शकट के साथ युक्त न किया गया हो । उत्तर दिया गया है कि यदि योग करने के पश्चात् आहुति देता है तो यह ऐसा होगा जैसे प्रयाण के पश्चात् वास्तु में आहुति देता हो । यदि बलीवर्दों का योग करने से पहले आहुति देता है तो उससे केवल क्षेम की प्राप्ति होगी । आहुति देने का उपयुक्त काल वह है जब दक्षिण बलीवर्द युक्त हो गया हो और सव्य अयुक्त हो । यहां बलीवर्द से तात्पर्य प्राण – अपान से हो सकता है ( प्राणापानौ अनड्वाहौ – अथर्ववेद ) । दक्षिण और सव्य से तात्पर्य चेतन और अचेतन प्राण, मन या वाक् से हो सकता है । चेतन अथवा विकसित प्राण को शकट से जोड दिया गया है, अचेतन या अविकसित प्राण को जोडना शेष है, वह स्थिति वास्तोष्पति को प्रसन्न करने की है । जैसा कि पूर्व की टिप्पणियों में कहा जा चुका है , हमारी देह में प्राणों की सर्वाधिक विकसित स्थिति शीर्ष भाग में आंख, कान, नाक आदि के रूप में प्रकट हुई है । यह आंख आदि शरीर के निचले हिस्से में भी हैं, लेकिन अविकसित रूप में । ऐसा प्रतीत होता है है कि अचेतन मन ही रुद्र रूपी वास्तोष्पति है जिसको प्रसन्न करना है ।
तैत्तिरीय संहिता ३.१.१०.३ का कथन है कि बहिष्पवमान हेतु सर्पण से पूर्व जो यज्ञ के ऋत्विजों द्वारा ग्रह ग्रहण किए जाते हैं, यह यज्ञ हेतु वास्तु क्रिया ही है । इस कथन की व्याक्या यह है कि सोमयाग में हविर्धान मण्डप में काष्ठ और मृत्तिका से बने ग्रहों को स्वच्छ करके एक मंच पर रख दिया जाता है । बहिष्पवमान कृत्य हेतु सर्पण से पूर्व सोम को सोमलता से निचोड कर द्रोणकलश में छान लिया जाता है । फिर इन ग्रहों को द्रोणकलश में डुबाकर सोम से भर लिया जाता है और पुनः यथास्थान रख दिया जाता है जिससे उपयुक्त कृत्य के अवसर पर इस सोम की देवों को आहुति दी जा सके । कहा गया है कि प्राण ग्रह रूप ही हैं । अतः सोमयाग में वास्तु की पराकाष्ठा यह है कि प्राणों को सोम प्राप्त हो जाए । और सोमयाग के संदर्भ में कहा जाता है कि यज्ञ भूमि पर असुरों का अधिकार था । देवों ने असुरों से यज्ञ करने के लिए स्थान मांगा । समझौता यह हुआ कि विष्णु जितने स्थान में सो सकते हैं, उतना स्थान यज्ञ हेतु मिल जाएगा । विष्णु ने अपने को बृहत् बनाकर सारा स्थान असुरों से हथिया लिया । इस आख्यान से प्रतीत होता है कि सोमयाग में वास्तुपुरुष की पराकाष्ठा विष्णु या सोम बनने में है । तब न कोई अविकसित प्राण रहेगा, न अचेतन मन, न अविकसित वाक् ।
तैत्तिरीय संहिता के उपरोक्त कथन में बहिष्पवमान हेतु सर्पण का उल्लेख आया है । बहिष्पवमान कृत्य यज्ञ की वेदी से बाहर किया जाता है । कहा गया है कि यह अरण्य प्रदेश है । इसका निहितार्थ यह होगा कि बहिष्पवमान कृत्य आरण्यक पशुओं सिंह, व्याघ्र आदि के लिए किया जाता है । ग्राम्य पशुओं के लिए जो कृत्य किए जाते हैं, वह सब वेदी के अन्दर किए जाते हैं । पशु कहने से तात्पर्य है जिस प्राणी के अन्दर वाक्, प्राण और मन अविकसित अवस्था में हों, वह पशु है । कहा गया है कि बहिष्पवमान यज्ञ का मुख है । इसके द्वारा पूरे यज्ञ के लिए वीर्य का आधान करते हैं । यह विचारणीय है कि बहिष्पवमान को यज्ञ का मुख कहने से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कोई साधक एकान्तिक साधना करने बैठता है तो सबसे पहले उसके सामने साधना के भयानक रूप ही प्रकट होते हैं । कभी मन में आएगा कि साधना में सफलता मिलेगी नहीं, संसार वैसे छूट जाएगा । गौतम बुद्ध के विषय में प्रसिद्ध है कि मार उन्हें सारी रात सताता रहा । इन आरण्यक पशुओं में हिंसा की वृत्ति विद्यमान है । यह साधना से विचलित करने का प्रयास करते हैं । अतः इन्हें यज्ञ का मुख कहा जा सकता है । इन आरण्यक पशुओं की वास्तु शान्ति कैसे होती है, यह विचारणीय है । कहा गया है कि ग्राम्य पशु पयोग्रहा हैं जिनकी पराकाष्ठा सोमग्रहा बनने में होती है । आरण्यक पशु अन्नग्रहा हैं जिनकी पराकाष्ठा अन्नाद्यग्रहा या सुराग्रहा बनने में होती है । इस कथन की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । पुराणों में सिंह, व्याघ्र आदि को भूत, महाभूत आदि कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि यह भूतकाल में किए गए कर्मों के फल हैं जो साधना काल में प्रकट होकर डराते हैं । इन्हें भद्र बनाने की आवश्यकता होती है । पुराणों में अन्यत्र कहा गया है कि प्रलय काल में आदित्य सिंह होकर और वैश्वानर व्याघ्र होकर भूतों का भक्षण कर लेते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक ओर सिंह, व्याघ्र आदि रौद्र रूप धारण किए हुए कर्मफल हैं तो दूसरी ओर यह कर्मफलों का भक्षण करने वाले भी हैं । जब सिंह को दुर्गा का वाहन कहा जाता है तो वह दूसरी प्रकार का सिंह होगा ।
भागवत पुराण का प्रसिद्ध श्लोक है –
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ।।
अर्थात् ईश्वर में प्रेम किया जाता है, उसके भक्तों से मैत्री, जो बिखरे हुए प्राण हैं, उन पर कृपा और द्वेष करने वालों की उपेक्षा । ऐसा भक्त मध्यम श्रेणी का भक्त कहलाएगा । वास्तव में यज्ञ में तो किसी भी पाप की उपेक्षा का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए ।
वास्तु और वास्तोष्पति के उपरोक्त सारे प्रसंग को जे.ए. गोवान द्वारा किए गए शोध के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है । श्री गोवान के अनुसार जड पदार्थ में सममिति का ह्रास हो गया है जिसको पूरा करने के लिए सूर्य का अंश उसके ऊपर विद्युत आवेश के रूप में विद्यमान है । अतः मुख्य तथ्य यह है कि जड – चेतन जगत में जिस प्रकार से सममिति को पूरा करना हो, वह कार्य वास्तु शान्ति के द्वारा किया जाना है । अथर्ववेद ९.२.४ तथा ९.२.९ में वास्तु तमोरूप है जिसका उद्धार काम अथवा अग्नि द्वारा होता है ।
ऋग्वेद ५.४१.८ में त्वष्टा को वास्तोष्पति कहा गया है । त्वष्टा का कार्य काट – छांट करना होता है । देवों का त्वष्टा विश्वकर्मा है । सूर्य के अतिरिक्त तेज की काट – छांट करके उन्हें विभिन्न देवों के अस्त्रों का रूप देने वाला त्वष्टा ही है । यह कहा जा सकता है कि जब तमोगुण की अधिकता हो, तब वास्तोष्पति रुद्र होगा । जब प्रकाश की अधिकता हो, तब वास्तोष्पति त्वष्टा होगा । वास्तुसूत्रोपनिषद के श्लोकों में यह बताया गया है कि तेज रूपी शिला को काट – छांट कर उसे इष्ट देव का रूप देने के लिए भक्त के लिए छेनी आदि किस प्रकार की होंगी । ऋग्वेद १०.६१.७ में व्रत का पालन करने वाले वास्तोष्पति की उत्पत्ति तब कही गई है जब पिता ने अपनी दुहिता में रेतः का सेचन किया ।
ऋग्वेद ७.५४ व ७.५५ सूक्त वास्तोष्पति देवता के हैं तथा इन दोनों सूक्तों के ऋषि मैत्रावरुणि वसिष्ठ हैं । जैसी कि वेद की ऋचाओं के बारे में सार्वत्रिक स्थिति है, प्रथम दृष्टि में इन ऋचाओं से कोई सार्थक अर्थ प्राप्त करना कठिन है । इन दोनों सूक्तों की प्रथम ऋचाओं में वास्तोष्पति से हमारे लिए अनमीवा या रोगरहित बनने की प्रार्थना की गई है । दूसरे सूक्त में वास्तोष्पति से प्रार्थना की गई है कि वह अमीवहा होकर विश्वा रूपों में प्रवेश करे । दूसरे सूक्त में मुख्य रूप से सो जाने की कामना की गई है – सोने वालों में सारमेय या कुत्ता, स्तेन या चोर, तस्कर, माता, पिता, श्वा, विश्पति, सारे ज्ञाति या भाई – बन्धु, सारे आसपास के जन, सब सो जाएं । जो सहस्रशृंग या हजार सींगों वाला वृषभ समुद्र से उत्पन्न हुआ है, उसकी सहायता से हम लोगों को सुलाते हैं । जितनी नारियां/नाडियां हैं, उन सबको हम सुलाते हैं ।
सबसे पहले हम वास्तोष्पति के अनमीवा वाले पक्ष पर विचार करते हैं । डा. एस. टी. लक्ष्मीकुमार द्वारा दी गई सूचना के अनुसार हमारे शरीर में जिन नयी कोशिकाओं का, नये सैलों का निर्माण होता है, वह एकदम नहीं हो जाता । हजारों – लाखों नई कोशिकाएं बिना किसी व्यवस्था के बनती हैं जिनमें से हमारी चेतना अपने अनुकूल, व्यवस्थित कोशिका को चुन लेती है, बाकी को मार डालती है । जहां हमारी चेतना का नियन्त्रण समाप्त हुआ कि कैंसर रोग हुआ । अतः यहां हमारी उच्चतर चेतना ही हमारे लिए त्वष्टा है । वही वास्तोष्पति है । ऋग्वेद ७.५५ के वास्तोष्पति सूक्त में जो विभिन्न चेतनाओं के, विशेष रूप से श्वा या कुत्ते के तथा नारियों या नाडियों के सो जाने की प्रार्थना की गई है, उसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में कैंसर रोग के नाश हेतु कैमोथीरेपी चिकित्सा के माध्यम से समझा जा सकता है । कैमोथीरेपी में शरीर में ऐसे विष का प्रवेश कराया जाता है जिससे नई कोशिकाओं का जनन कुछ समय तक के लिए रुक जाता है । फिर जब विष का प्रभाव कम होता है और नई कोशिकाओं का निर्माण आरम्भ होता है, तब तक हमारी उच्चतर चेतना को एक नई शक्ति मिल चुकी होती है, उसे आराम मिल चुका होता है और वह फिर से कोशिकाओं के निर्माण पर नियन्त्रण करने लगती है । वास्तोष्पति सूक्त में उच्चतर चेतना को आराम, शक्ति सोने के द्वारा पहुंचाई जा रही है (श्वा से अर्थ भविष्य काल से भी हो सकता है) । कहा गया है कि समुद्र से एक हजार सींग वाले वृषभ का उदय होता है और उसकी सहायता से यह सुलाने का कार्य किया जाता है । यह समुद्र कौन सा है और हजार शृङ्गों वाला वृषभ कौन सा है, यह अन्वेषणीय है । सामान्य अर्थों में समुद्र को आनन्द के समुद्र के रूप में तथा सींगों को अतिमानसिक चेतना के विकास के रूप में लिया जाता है ।
Sunday, August 8, 2010
Ek pukar from Jagao Mohan payare
Secularism: Indian Istyle
Lot of Hindu bashing is going on recently under the garb of Secularism in India. To give a correct picture here are some facts, figures and opinions.
1. When Shri Y B Chavan was Home Minister he collected data of 23 major communal riots occurred after independence. The truth came out showed that out of 23 major riots, 22 were started by Muslims. Though one exceptional riot was not started by Hindus, there was no conclusive proof that it was started by Muslims. The recent communal riots in Gujarat were also started by Muslims. To keep their tradition in tact thereafter, the communal riots in Akola and Kalyan (Maharashtra) were also started by Muslims.
2. Muslims do not require majority to start a riot. If they have sizable pockets of even 10 per cent, they start riots. When they have a majority, they totally wipe out the other community as they have done in Kashmir by crushing lakhs of Hindus. Invariably in all these riots more Hindus die than the Muslims. Hindus are killed by the Muslims by starting the riots and then again Hindus are killed in police firing when they try to retaliate. In recent communal riots in Gujarat in fortunately for the secularists more Muslims died than the Hindus. That is why there is so much hue and cry. According to the secularists all riots should be on Kashmir Pattern. That is for one death of a Muslim at least 100 Hindus must die in communal riots. That is secularism- Indian- Istyle. English media is playing a leading role in this secular game. And in that too among the print media The Times of India and among the electronic media Star News. Tops. Later Girilal Jain was an exception. Sometimes I wonder whether am I living in India or Pakistan?
3. But this phenomenon is not akin to India alone. Wherever there is Islam there is fundamentalism. Whether it is Algeria, Azarbaizan, Bosnia, Britain, Germany, Morroco, Phillipines, Somalia, or our neighbour Pakistan – the Macca of terrorism. After killing all Hindus, now in Pakistan they are killing comparatively progressive sects like Shias and Ahmedias. As if without killing Islam cannot survive.
4. Secularists use pet phrases like ‘Secular Muslim’ or ‘Hindu Fundamentalist’. Both these concepts are ridiculous. For the simple reason that a Muslim ceases to be a Muslim the moment he becomes secular and a Hindu ceases to be a Hindu the moment he becomes fundamentalist. If there are exceptions like Hamid Dalvai in the past and Muzzafar Hussain at present that prove the rules. What are the traits of a secular person? Firstly, he should be tolerant, secondly, he should be pluralist, thirdly, he should have respect for other faiths too, fourthly, he should be democratic, fifthly, he should be first an Indian and a humanitarian then anything else. All these traits are conspicuously absent in a Muslim and present in a Hindu.
5. The attack on WTC on 11/9/2001 in USA shocked the whole world. I was not shocked. But it surprised me because I expected it to happen in the 20th century not in the 21st century. I went abroad in 1975, where I came in contact with some members of the Pan Islamic movement. The information I gathered from them was horrible. According to them their network is spread throughout the world, their enemy No. one is Christianity and the states governed by people of Christian faith, because they are very powerful and rich and main threat to Islam. This Pan Islamic Movement is funded by all and sundry who have faith in Islam – from underworld to Muslim Celebrities to ordinary Muslims. Their Cadres come from Mdrassas. They have the capacity to destroy the whole world, but that is their last weapon, first they wanted to convert the whole world into Islamic faith. (To me both these things – to convert the world into Islamic faith or destroy it are one and the same thing).
source: http://www.hvk.org/
NOTE: Every body feel free to copy this blog and make your own and put these articles on it and protect your dharma also you can sign up for google Adsense account and make some money but please use 50% of the money earned from such blog for the protection of dharma or feeding the poor, only money making should not be the purpose of the blog but it is offered to you to encourage the promotion of these articles as we want every hindu to read these articles and after somuch discussion we found above way is the best to reach our target audience, make sure you interpret the above paragraph correctly
also please aesaa koi kaam na karein jis se iss desh ke liye shahid hone walo kee aatma ko thes pahoche
thank you
Lot of Hindu bashing is going on recently under the garb of Secularism in India. To give a correct picture here are some facts, figures and opinions.
1. When Shri Y B Chavan was Home Minister he collected data of 23 major communal riots occurred after independence. The truth came out showed that out of 23 major riots, 22 were started by Muslims. Though one exceptional riot was not started by Hindus, there was no conclusive proof that it was started by Muslims. The recent communal riots in Gujarat were also started by Muslims. To keep their tradition in tact thereafter, the communal riots in Akola and Kalyan (Maharashtra) were also started by Muslims.
2. Muslims do not require majority to start a riot. If they have sizable pockets of even 10 per cent, they start riots. When they have a majority, they totally wipe out the other community as they have done in Kashmir by crushing lakhs of Hindus. Invariably in all these riots more Hindus die than the Muslims. Hindus are killed by the Muslims by starting the riots and then again Hindus are killed in police firing when they try to retaliate. In recent communal riots in Gujarat in fortunately for the secularists more Muslims died than the Hindus. That is why there is so much hue and cry. According to the secularists all riots should be on Kashmir Pattern. That is for one death of a Muslim at least 100 Hindus must die in communal riots. That is secularism- Indian- Istyle. English media is playing a leading role in this secular game. And in that too among the print media The Times of India and among the electronic media Star News. Tops. Later Girilal Jain was an exception. Sometimes I wonder whether am I living in India or Pakistan?
3. But this phenomenon is not akin to India alone. Wherever there is Islam there is fundamentalism. Whether it is Algeria, Azarbaizan, Bosnia, Britain, Germany, Morroco, Phillipines, Somalia, or our neighbour Pakistan – the Macca of terrorism. After killing all Hindus, now in Pakistan they are killing comparatively progressive sects like Shias and Ahmedias. As if without killing Islam cannot survive.
4. Secularists use pet phrases like ‘Secular Muslim’ or ‘Hindu Fundamentalist’. Both these concepts are ridiculous. For the simple reason that a Muslim ceases to be a Muslim the moment he becomes secular and a Hindu ceases to be a Hindu the moment he becomes fundamentalist. If there are exceptions like Hamid Dalvai in the past and Muzzafar Hussain at present that prove the rules. What are the traits of a secular person? Firstly, he should be tolerant, secondly, he should be pluralist, thirdly, he should have respect for other faiths too, fourthly, he should be democratic, fifthly, he should be first an Indian and a humanitarian then anything else. All these traits are conspicuously absent in a Muslim and present in a Hindu.
5. The attack on WTC on 11/9/2001 in USA shocked the whole world. I was not shocked. But it surprised me because I expected it to happen in the 20th century not in the 21st century. I went abroad in 1975, where I came in contact with some members of the Pan Islamic movement. The information I gathered from them was horrible. According to them their network is spread throughout the world, their enemy No. one is Christianity and the states governed by people of Christian faith, because they are very powerful and rich and main threat to Islam. This Pan Islamic Movement is funded by all and sundry who have faith in Islam – from underworld to Muslim Celebrities to ordinary Muslims. Their Cadres come from Mdrassas. They have the capacity to destroy the whole world, but that is their last weapon, first they wanted to convert the whole world into Islamic faith. (To me both these things – to convert the world into Islamic faith or destroy it are one and the same thing).
source: http://www.hvk.org/
NOTE: Every body feel free to copy this blog and make your own and put these articles on it and protect your dharma also you can sign up for google Adsense account and make some money but please use 50% of the money earned from such blog for the protection of dharma or feeding the poor, only money making should not be the purpose of the blog but it is offered to you to encourage the promotion of these articles as we want every hindu to read these articles and after somuch discussion we found above way is the best to reach our target audience, make sure you interpret the above paragraph correctly
also please aesaa koi kaam na karein jis se iss desh ke liye shahid hone walo kee aatma ko thes pahoche
thank you
Friday, August 6, 2010
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(But is a good word i like it as it changes the overalll sequence)
I tried to change some PDF typed in hindi and get result as shown below
ॐ ौीगणशाय नमः। नमारायै।े |
कैलासिशखरासीन भैरव कालसितम।ंंं् |
ूोवाच सादर दवी त वःसमािौता॥ ंे१-१॥ |
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