chamatkar chintamani

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Tuesday, December 7, 2010

क्या ऋषीयों ने भी ब्लैक्बेरी प्रयोग किया था

आज एक मित्र ने अपने अन्द्राईड फोन से फ़ेसबूक पर मैसेज शेयर किया मैने उसे अपने ब्लैक्बेरी पर देखा - ये सामान्य है बहुत लोगों के साथ होता है पर मुझे कुछ याद आया और मै ये लेख ले कर आप सब मित्रों के साथ बैठा हूं।

यजुर्वेद के ३१ अध्याय के १६ मन्त्रों को पुरूष सूक्त का नाम दिया गया है जिसमे पहला मन्त्र

"सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात। स भूमिं सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम॥"
है। इसका हिन्दी मे अनुवाद इस प्रकार से होगा - हजार शिरों वाला पुरुष जिसके हजार आखें हजार पैर है वो इस भूमि को चारों तरफ़ से घेरकर दस अंगुल का होकर बैठा है,
इसको पढने के बाद प्रश्न उठता है कि क्या वो पुरुष जिसकी बात इसमे की गई है हजारों सिर वाला हजार आखों वाला काना और हजार पैर वाला लंगडा है जो कि दस अंगुल मे ही समा जाता है। इसकी कई लोगो ने कई व्याख्या की होगी पर मैने सोचा कि हां ये सही ही तो है, एक नम्बर मिलाने पर अमुक से बात होगी एक नम्बर से अमुक व्यक्ति मिलेगा तो उसका फोन यदि ३जी हो तो वो पुरूष ठीक मन्त्रानुसार बन जाता है, उस मोबाईल मे एक स्क्रीन है जिससे आप एक व्यक्ति को देख पा रहे है और एक कैमरा है जो कि एक आंख का प्रतिनिधित्व कर रहा है, एक ही लाईन यानी एक संप्रेशण से वो जुडा हुआ पुरुष आप के दस अंगुल लम्बे जेब मे बैठ जाता है पर फ़िर वो सहस्र शिरों वाला कैसे - जवाब फ़ेस बुक से (या अन्य नेट्वर्किंग माध्यम से) वही पुरूष आप को हजारो लाखों जगह मिल सकता है एक आंख और एक पैर वाला फ़िर भी वो व्यक्ति वही रहेगा और सभी से जुडा होने पर भी उसकी अपनी एक वास्तविकता होगी जो की हमारे ही समानान्तर कही है जिसे हम प्रत्यक्ष तो नही देख पा रहे पर वो है जरूर बस जरूरत एक कनेक्सन की है और फ़िर भी वो रहता एक दस अंगुल के जेब मे ही है, इसमे पूरी भूमि को व्याप्त कर रखा है अमेरिका थाईलैण्ड, जापान, भारत सब एक, हर जगह वो पुरुष एक॥
क्या ऋषीयों ने भी ब्लैक्बेरी प्रयोग किया था सभी काल निर्धारण के छोड दे और सिर्फ ५००० साल पहले या छोडिये १०० साल पहले ही ये नेट्वर्किग और इसकी अवधारणा मौजूद थी।

Tuesday, August 17, 2010

Vastu ka vedic swaroop courtsey Mr. Vipin Kumar

वास्तु - वास्तु क्या होता है, इस संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि सारे देवता यज्ञ द्वारा स्वर्ग को चले गए । लेकिन जो देव पशुओं का इष्ट था, वह यहीं पडा रह गया(शतपथ ब्राह्मण १.७.३.२) । उसने उपद्रव करना आरम्भ कर दिया कि या तो मुझे भी स्वर्ग भेजो अन्यथा मैं विघ्न उपस्थित करूंगा । तब देवताओं ने व्यवस्था दी कि जो आहुतियां हमें प्राप्त होंगी, वही तुम्हें भी प्राप्त होंगी । तब वास्तु शान्त हुआ । जो आहुतियां देवों को दी जा रही हैं, वह पशुओं के देव को किस प्रकार प्राप्त होंगी, यह प्रक्रिया जटिल है और इसे अग्नि स्विष्टकृत नाम दिया गया है । कहा गया है कि वास्तु अवीर्य है और इसमें वीर्य का आधान करना पडता है । तभी यह वास्तु स्विष्टकृत् बन पाती है । इस आख्यान का पौराणिक स्वरूप यह है कि असुरों के अधिपति ने शुक्राचार्य द्वारा प्रदत्त आथर्वण मन्त्रों से एक भूत को उत्पन्न किया । देवों ने उसे अस्त्रों – शस्त्रों से मारने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन उसका कुछ भी न बिगडा । तब देवता विभिन्न गुणों का रूप धारण करके उसके शरीर में प्रविष्ट हो गए और उसको धराशायी कर दिया । लेकिन वह मरा नहीं । तब विष्णु ने उससे शान्त होने का अनुरोध किया । उसने कहा कि जो आहुतियां देवों को प्राप्त हो रही हैं, वह मुझे भी प्राप्त हों । विष्णु ने कहा कि ऐसा ही होगा । उस भूत के जिस अंग पर जो देवता विराजमान हुआ, उस देवता को जो आहुति प्राप्त होगी, वह उस भूत को भी प्राप्त होगी । चूंकि देवों ने भूत के अंगों में वास किया, इस कारण उस भूत का वास्तु नाम हुआ । इस कथा में भूत शब्द महत्त्वपूर्ण है । भूत भूतकाल को कहते हैं । हमारे पाप भूतकाल से सम्बन्ध रखते हैं । कोई भी अच्छा काम करो, यह पाप सामने आकर अच्छे काम को बिगाड कर रख देते हैं । उसका उपाय वैदिक साहित्य में वास्तु शान्ति बताया गया है । यह वास्तु शान्ति किस प्रकार हो, अवसर अनुसार इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं । एक रूप वास्तु प्रतिष्ठा करते समय जीवित कूर्म की स्थापना का है । पुराणों में कूर्म की शक्ति कमठी का उल्लेख है । कर्मठ शब्द की निरुक्ति शब्दकल्पद्रुम शब्दकोश में प्रयत्न से प्रारब्ध का क्षय करने वाले के रूप में की गई है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.७ आदि में स्वयमातृण्णा इष्टका स्थापना के संदर्भ में कहा गया है कि अग्निचिति बनाते समय पहली तीन चितियों/परतों में स्वयमातृण्णा इष्टका के स्थान पर पशुओं के शिर रखते हैं । चौथी चिति में जीवित कूर्म को रखते हैं जिसका मुख नीचे की ओर होता है तथा पांचवी चिति में पुरुष का शीर्ष रखते हैं जिसका मुख उत्तान, ऊपर की ओर होता है । कहा गया है कि कूर्म से पूर्व की चितियां तो श्मशान की भांति हैं और जीवित कूर्म रखने का निहितार्थ है कि इस श्मशान को अश्मशान बनाना है, जड जगत में प्राणों का, जीव का संचार करना है । अध्यात्म में श्मशान का अर्थ अपने कर्मों के फल को जलाना होता है । ऋग्वेद २.२७ सूक्त में जो उषाओं और आदित्यों के उदय की बात कही गई है, वहां उषाएं ही जड या सोए हुए जगत में प्राणों का संचार करती हैं ।
वैदिक साहित्य में वास्तु का एक और पक्ष भी है । वह विज्ञान के इस सिद्धान्त से जुडा है कि किसी भी ऊर्जा को सौ प्रतिशत दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता । मान लिया विद्युतीय ऊर्जा का रूपान्तरण पंखे या मोटर द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा में किया जा रहा है । ऐसा नहीं है कि विद्युतीय ऊर्जा सौ प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में बदल जाएगी । ऊर्जा का कुछ अंश ऊष्मा के रूप में व्यर्थ चला जाएगा । वैदिक साहित्य में इसका रूप यह है कि प्रजापति के वीर्य का परिष्कार करने से कुछ तो यज्ञीय पशुओं जैसे अज, अवि, गौ, अश्व, पुरुष आदि उत्पन्न हुए । फिर जो वीर्य की ऊर्जा या भस्म बची, उससे अयज्ञीय पशु गौर, गवय, ऋष्य, उष्ट्र, गर्दभ आदि उत्पन्न हुए (ऐतरेय ब्राह्मण ३.३४) । यह यज्ञ का शेष है और इन पर रुद्र देवता का अधिकार है । यह रुद्र देवता उपद्रव न करे, इसके लिए यज्ञ के अन्त में स्विष्टकृत इष्टि का विधान है(शतपथ ब्राह्मण १.७.३.१) । सोमयाग में इस शेष का परिष्कार करने के लिए तृतीयसवन नामक सवन का अनुष्ठान किया जाता है जिसमें सोमलता के ऋजीष भाग में दधि आदि मिलाकर उसे वीर्ययुक्त बनाया जाता है और फिर उस सोमभाग से आहुतियां दी जाती हैं । आधुनिक विज्ञान में इस तथ्य का कैसे उपयोग किया जा सकता है, यह अन्वेषणीय है ।
ऐतरेय ब्राह्मण ५.१४ में इस यज्ञशेष पर किसका अधिकार है, इसको लेकर एक आख्यान की रचना की गई है जिसमें नाभानेदिष्ट अपने पिता मनु से धन प्राप्ति का उपाय पूछता है । मनु ने बताया कि अङ्गिरस गण सत्र द्वारा स्वर्ग जाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन यज्ञ के छठे दिन वह गलती कर जाते हैं जिससे वह स्वर्ग नहीं जा पाते । यदि नाभानेदिष्ट उनकी गलती सुधार सके तो वह स्वर्ग जा सकते हैं । और स्वर्ग जाने पर उनका जो धन यज्ञशेष के रूप में है, वह नाभानेदिष्ट को मिल सकता है । नाभानेदिष्ट ने ऐसा ही किया और अंगिरसों को अपने दो सूक्तों का ज्ञान दिया जिनके जप से वह छठें दिन त्रुटि को सुधार कर स्वर्ग चले गए (यह दो सूक्त ऋग्वेद १०.६१-१०.६२ हैं) । जाते समय उन्होंने नाभानेदिष्ट से कहा कि यज्ञशेष के रूप में उनका जो धन पृथिवी पर रह जाएगा, उस पर नाभानेदिष्ट का अधिकार होगा । लेकिन जैसे ही नाभानेदिष्ट ने यज्ञशेष पर अपना अधिकार जमाना चाहा, एक रुद्र पुरुष प्रकट हो गया और उसने कहा कि यज्ञशेष पर तो उसका अधिकार होता है । अन्त में कृपा करके रुद्र ने यज्ञशेष रूपी धन नाभानेदिष्ट को दे दिया । पुराणों में इस आख्यान के रूपान्तर में मनु – पुत्र नाभानेदिष्ट के स्थान पर नभग – पुत्र नाभाग आता है (शिव पुराण ३.२९, भागवत पुराण ९.४) । नाभानेदिष्ट का अर्थ है जो नाभि के सबसे निकट है । इस आख्यान में स्वर्ग को स्वः कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि चेतना का एक भाग स्वः को, जडता से रहित स्थिति को प्राप्त हो सकता है । चेतना का दूसरा भाग, जिसमें जडता शेष रह जाएगी, उसे वास्तु कल्पन की आवश्यकता पडेगी । चेतना के जिस भाग को स्वः स्थिति तक पहुंचाया जाता है, उसके लिए पृष्ठ्य षडह नामक ६ दिन के सोमयाग में छठें दिन विशेष आयोजन किया जाता है । नाभानेदिष्ट के सूक्तों के अतिरिक्त ६ वालखिल्य सूक्तों (ऋग्वेद ८.४९ – ८.५४), वृषाकपि सूक्त(ऋग्वेद १०.८६), एवयामरुत सूक्त ( ऋग्वेद ५.८७) का शंसन एक विशेष क्रम में किया जाता है । कहा गया है कि नाभानेदिष्ट सूक्त का शंसन इस प्रकार है जैसे योनि में रेतः का सिंचन । वालखिल्य सूक्तों का शंसन इस प्रकार है जैसे योनि में प्राणों का प्रक्षेपण । एवयामरुत सूक्त इस प्रकार है जैसे योनि में गर्भ की प्रतिष्ठा । योनि का आकार छोटा होता है और गर्भ बडा । लेकिन गर्भ को योनि से बाहर निकलने में कोई कठिनाई नहीं होती । इसी स्थिति का निर्माण अध्यात्म में करना है । पूरी प्रक्रिया को शिल्प नाम दिया गया है और कहा गया है कि शिल्प स्थिति नृत्य, गीत, वाद्य की स्थिति है । ऐसा प्रतीत होता है कि शिल्प से पहली स्थिति याम की, यम की स्थिति होती है जहां अपने जीवन में यम – नियम का आश्रय लेकर व्यवहार करना होता है । फिर साधना में एक स्थिति ऐसी आती है कि मनुष्य हर्ष से पागल हो जाता है, यम – नियम सब छूट जाता है । इस स्थिति पर नियन्त्रण करने को शिल्प कहा जा सकता है ।
चेतना के जड भाग को सक्रिय बनाने के लिए पुराणों में जिस प्रकार वास्तु पुरुष की कल्पना की गई है, वैसा विस्तृत वर्णन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता । पुराणों में पूरी देह को ही वास्तु पुरुष का रूप दे दिया गया है जिसके विभिन्न अंगों पर विभिन्न देवता विराजमान हैं । मत्स्य पुराण २५३.३९ में यह बताया गया है कि वास्तु पुरुष के किस अंग पर कौन सा देवता विराजमान है । इस वर्णन के अनुसार दांयी भुजा पर सावित्र और सविता, हस्त के मणिबन्धन पर पूषा और पापयक्ष्मा विराजमान हैं । इस कथन की तुलना वैदिक साहित्य के सार्वत्रिक मन्त्र से की जा सकती है – सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां इति । वैदिक कर्मकाण्ड में जब भी कोई कर्म किया जाता है, वह इस मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् ही किया जाता है । इस मन्त्र का अर्थ यह है कि मेरी कर्मेन्द्रिय का सविता देव प्रसुवन करें, विशेष प्रेरणा दें । अश्विनौ देव मेरी बाहुएं बनें, पूषा देव हस्त बनें, तभी देव – सम्बन्धी कार्य करना सम्भव हो सकता है, अन्यथा वह मानुषी कार्य ही रहेगा । यह महत्त्वपूर्ण है कि वास्तुपुरुष के हस्त पर कौन से देवता विराजमान हैं, इसकी तुलना तो वैदिक साहित्य से करना संभव हो पाया है । लेकिन वास्तु पुरुष के अन्य अंगों पर जो देवता विराजमान हैं, जैसे जठर में विवस्वान् और मित्र, इनकी तुलना वैदिक साहित्य से करना और इनको न्यायोचित सिद्ध करना इतना सरल कार्य नहीं है और भविष्य में अन्वेषणीय है । इतना तो पता चल ही गया है कि वास्तु पुरुष पर देवों की यह स्थापना अद्वितीय है जिसको ध्यान में रखकर ही वैदिक कथनों का निर्वचन करना होगा ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से रुद्र देव को वास्तोष्पति कहा गया है । यह रुद्र कौन हो सकता है, इसका अनुमान तैत्तिरीय संहिता ३.४.१०.१ के कथन से होता है । इस कथन का संदर्भ यह है कि यदि अग्निहोत्री गृह सहित प्रयाण करने लगे, अपने घर से निकल कर बाहर जाने लगे, तो उसे अपनी आहिताग्नि में किस प्रकार होम करना है जिससे वास्तोष्पति उपद्रव न करे । आहिताग्नि से तात्पर्य यह होता है कि एक अग्निहोत्री को एक बार अपनी अग्नि प्रज्वलित करके सदैव उसकी रक्षा करनी होती है । उसके घर में अग्नि पर जो भी पकेगा, उस अग्नि का प्रज्वलन उसी आहिताग्नि से किया जाएगा । कहा गया है कि सगृह प्रयाण करते समय वास्तोष्पति मन्त्र – द्वय से गार्हपत्य के उत्तर में आहुति देनी है । मन्त्र (ऋग्वेद ७.५४.१-२) यह हैं –
वास्तोष्पते प्रति जानीह्यसमान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः ।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं न एधि द्विपदे शं चतुष्पदे ।।
वास्तोष्पते शग्मया सँसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या ।
आवः क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।।
प्रथम मन्त्र में कहा जा रहा है कि द्विपद और चतुष्पद के लिए शं हो । द्विपद से अर्थ मनुष्य और चतुष्पद से पशु होता है । द्विपद का दूसरा अर्थ ऊर्ध – अधो दिशा में गति करने वाला और चतुष्पद का अर्थ तिर्यक् गति करने वाला होता है । यहां प्रश्न उठाया गया है कि रुद्र रूपी वास्तोष्पति को प्रसन्न करने के लिए आहुतियां उस समय देनी चाहिएं जब शकट के साथ बलीवर्दों को युक्त कर दिया गया हो, अथवा जब बलीवर्दों को शकट के साथ युक्त न किया गया हो । उत्तर दिया गया है कि यदि योग करने के पश्चात् आहुति देता है तो यह ऐसा होगा जैसे प्रयाण के पश्चात् वास्तु में आहुति देता हो । यदि बलीवर्दों का योग करने से पहले आहुति देता है तो उससे केवल क्षेम की प्राप्ति होगी । आहुति देने का उपयुक्त काल वह है जब दक्षिण बलीवर्द युक्त हो गया हो और सव्य अयुक्त हो । यहां बलीवर्द से तात्पर्य प्राण – अपान से हो सकता है ( प्राणापानौ अनड्वाहौ – अथर्ववेद ) । दक्षिण और सव्य से तात्पर्य चेतन और अचेतन प्राण, मन या वाक् से हो सकता है । चेतन अथवा विकसित प्राण को शकट से जोड दिया गया है, अचेतन या अविकसित प्राण को जोडना शेष है, वह स्थिति वास्तोष्पति को प्रसन्न करने की है । जैसा कि पूर्व की टिप्पणियों में कहा जा चुका है , हमारी देह में प्राणों की सर्वाधिक विकसित स्थिति शीर्ष भाग में आंख, कान, नाक आदि के रूप में प्रकट हुई है । यह आंख आदि शरीर के निचले हिस्से में भी हैं, लेकिन अविकसित रूप में । ऐसा प्रतीत होता है है कि अचेतन मन ही रुद्र रूपी वास्तोष्पति है जिसको प्रसन्न करना है ।
तैत्तिरीय संहिता ३.१.१०.३ का कथन है कि बहिष्पवमान हेतु सर्पण से पूर्व जो यज्ञ के ऋत्विजों द्वारा ग्रह ग्रहण किए जाते हैं, यह यज्ञ हेतु वास्तु क्रिया ही है । इस कथन की व्याक्या यह है कि सोमयाग में हविर्धान मण्डप में काष्ठ और मृत्तिका से बने ग्रहों को स्वच्छ करके एक मंच पर रख दिया जाता है । बहिष्पवमान कृत्य हेतु सर्पण से पूर्व सोम को सोमलता से निचोड कर द्रोणकलश में छान लिया जाता है । फिर इन ग्रहों को द्रोणकलश में डुबाकर सोम से भर लिया जाता है और पुनः यथास्थान रख दिया जाता है जिससे उपयुक्त कृत्य के अवसर पर इस सोम की देवों को आहुति दी जा सके । कहा गया है कि प्राण ग्रह रूप ही हैं । अतः सोमयाग में वास्तु की पराकाष्ठा यह है कि प्राणों को सोम प्राप्त हो जाए । और सोमयाग के संदर्भ में कहा जाता है कि यज्ञ भूमि पर असुरों का अधिकार था । देवों ने असुरों से यज्ञ करने के लिए स्थान मांगा । समझौता यह हुआ कि विष्णु जितने स्थान में सो सकते हैं, उतना स्थान यज्ञ हेतु मिल जाएगा । विष्णु ने अपने को बृहत् बनाकर सारा स्थान असुरों से हथिया लिया । इस आख्यान से प्रतीत होता है कि सोमयाग में वास्तुपुरुष की पराकाष्ठा विष्णु या सोम बनने में है । तब न कोई अविकसित प्राण रहेगा, न अचेतन मन, न अविकसित वाक् ।
तैत्तिरीय संहिता के उपरोक्त कथन में बहिष्पवमान हेतु सर्पण का उल्लेख आया है । बहिष्पवमान कृत्य यज्ञ की वेदी से बाहर किया जाता है । कहा गया है कि यह अरण्य प्रदेश है । इसका निहितार्थ यह होगा कि बहिष्पवमान कृत्य आरण्यक पशुओं सिंह, व्याघ्र आदि के लिए किया जाता है । ग्राम्य पशुओं के लिए जो कृत्य किए जाते हैं, वह सब वेदी के अन्दर किए जाते हैं । पशु कहने से तात्पर्य है जिस प्राणी के अन्दर वाक्, प्राण और मन अविकसित अवस्था में हों, वह पशु है । कहा गया है कि बहिष्पवमान यज्ञ का मुख है । इसके द्वारा पूरे यज्ञ के लिए वीर्य का आधान करते हैं । यह विचारणीय है कि बहिष्पवमान को यज्ञ का मुख कहने से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कोई साधक एकान्तिक साधना करने बैठता है तो सबसे पहले उसके सामने साधना के भयानक रूप ही प्रकट होते हैं । कभी मन में आएगा कि साधना में सफलता मिलेगी नहीं, संसार वैसे छूट जाएगा । गौतम बुद्ध के विषय में प्रसिद्ध है कि मार उन्हें सारी रात सताता रहा । इन आरण्यक पशुओं में हिंसा की वृत्ति विद्यमान है । यह साधना से विचलित करने का प्रयास करते हैं । अतः इन्हें यज्ञ का मुख कहा जा सकता है । इन आरण्यक पशुओं की वास्तु शान्ति कैसे होती है, यह विचारणीय है । कहा गया है कि ग्राम्य पशु पयोग्रहा हैं जिनकी पराकाष्ठा सोमग्रहा बनने में होती है । आरण्यक पशु अन्नग्रहा हैं जिनकी पराकाष्ठा अन्नाद्यग्रहा या सुराग्रहा बनने में होती है । इस कथन की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । पुराणों में सिंह, व्याघ्र आदि को भूत, महाभूत आदि कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि यह भूतकाल में किए गए कर्मों के फल हैं जो साधना काल में प्रकट होकर डराते हैं । इन्हें भद्र बनाने की आवश्यकता होती है । पुराणों में अन्यत्र कहा गया है कि प्रलय काल में आदित्य सिंह होकर और वैश्वानर व्याघ्र होकर भूतों का भक्षण कर लेते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक ओर सिंह, व्याघ्र आदि रौद्र रूप धारण किए हुए कर्मफल हैं तो दूसरी ओर यह कर्मफलों का भक्षण करने वाले भी हैं । जब सिंह को दुर्गा का वाहन कहा जाता है तो वह दूसरी प्रकार का सिंह होगा ।
भागवत पुराण का प्रसिद्ध श्लोक है –
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ।।
अर्थात् ईश्वर में प्रेम किया जाता है, उसके भक्तों से मैत्री, जो बिखरे हुए प्राण हैं, उन पर कृपा और द्वेष करने वालों की उपेक्षा । ऐसा भक्त मध्यम श्रेणी का भक्त कहलाएगा । वास्तव में यज्ञ में तो किसी भी पाप की उपेक्षा का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए ।
वास्तु और वास्तोष्पति के उपरोक्त सारे प्रसंग को जे.ए. गोवान द्वारा किए गए शोध के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है । श्री गोवान के अनुसार जड पदार्थ में सममिति का ह्रास हो गया है जिसको पूरा करने के लिए सूर्य का अंश उसके ऊपर विद्युत आवेश के रूप में विद्यमान है । अतः मुख्य तथ्य यह है कि जड – चेतन जगत में जिस प्रकार से सममिति को पूरा करना हो, वह कार्य वास्तु शान्ति के द्वारा किया जाना है । अथर्ववेद ९.२.४ तथा ९.२.९ में वास्तु तमोरूप है जिसका उद्धार काम अथवा अग्नि द्वारा होता है ।
ऋग्वेद ५.४१.८ में त्वष्टा को वास्तोष्पति कहा गया है । त्वष्टा का कार्य काट – छांट करना होता है । देवों का त्वष्टा विश्वकर्मा है । सूर्य के अतिरिक्त तेज की काट – छांट करके उन्हें विभिन्न देवों के अस्त्रों का रूप देने वाला त्वष्टा ही है । यह कहा जा सकता है कि जब तमोगुण की अधिकता हो, तब वास्तोष्पति रुद्र होगा । जब प्रकाश की अधिकता हो, तब वास्तोष्पति त्वष्टा होगा । वास्तुसूत्रोपनिषद के श्लोकों में यह बताया गया है कि तेज रूपी शिला को काट – छांट कर उसे इष्ट देव का रूप देने के लिए भक्त के लिए छेनी आदि किस प्रकार की होंगी । ऋग्वेद १०.६१.७ में व्रत का पालन करने वाले वास्तोष्पति की उत्पत्ति तब कही गई है जब पिता ने अपनी दुहिता में रेतः का सेचन किया ।
ऋग्वेद ७.५४ व ७.५५ सूक्त वास्तोष्पति देवता के हैं तथा इन दोनों सूक्तों के ऋषि मैत्रावरुणि वसिष्ठ हैं । जैसी कि वेद की ऋचाओं के बारे में सार्वत्रिक स्थिति है, प्रथम दृष्टि में इन ऋचाओं से कोई सार्थक अर्थ प्राप्त करना कठिन है । इन दोनों सूक्तों की प्रथम ऋचाओं में वास्तोष्पति से हमारे लिए अनमीवा या रोगरहित बनने की प्रार्थना की गई है । दूसरे सूक्त में वास्तोष्पति से प्रार्थना की गई है कि वह अमीवहा होकर विश्वा रूपों में प्रवेश करे । दूसरे सूक्त में मुख्य रूप से सो जाने की कामना की गई है – सोने वालों में सारमेय या कुत्ता, स्तेन या चोर, तस्कर, माता, पिता, श्वा, विश्पति, सारे ज्ञाति या भाई – बन्धु, सारे आसपास के जन, सब सो जाएं । जो सहस्रशृंग या हजार सींगों वाला वृषभ समुद्र से उत्पन्न हुआ है, उसकी सहायता से हम लोगों को सुलाते हैं । जितनी नारियां/नाडियां हैं, उन सबको हम सुलाते हैं ।
सबसे पहले हम वास्तोष्पति के अनमीवा वाले पक्ष पर विचार करते हैं । डा. एस. टी. लक्ष्मीकुमार द्वारा दी गई सूचना के अनुसार हमारे शरीर में जिन नयी कोशिकाओं का, नये सैलों का निर्माण होता है, वह एकदम नहीं हो जाता । हजारों – लाखों नई कोशिकाएं बिना किसी व्यवस्था के बनती हैं जिनमें से हमारी चेतना अपने अनुकूल, व्यवस्थित कोशिका को चुन लेती है, बाकी को मार डालती है । जहां हमारी चेतना का नियन्त्रण समाप्त हुआ कि कैंसर रोग हुआ । अतः यहां हमारी उच्चतर चेतना ही हमारे लिए त्वष्टा है । वही वास्तोष्पति है । ऋग्वेद ७.५५ के वास्तोष्पति सूक्त में जो विभिन्न चेतनाओं के, विशेष रूप से श्वा या कुत्ते के तथा नारियों या नाडियों के सो जाने की प्रार्थना की गई है, उसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में कैंसर रोग के नाश हेतु कैमोथीरेपी चिकित्सा के माध्यम से समझा जा सकता है । कैमोथीरेपी में शरीर में ऐसे विष का प्रवेश कराया जाता है जिससे नई कोशिकाओं का जनन कुछ समय तक के लिए रुक जाता है । फिर जब विष का प्रभाव कम होता है और नई कोशिकाओं का निर्माण आरम्भ होता है, तब तक हमारी उच्चतर चेतना को एक नई शक्ति मिल चुकी होती है, उसे आराम मिल चुका होता है और वह फिर से कोशिकाओं के निर्माण पर नियन्त्रण करने लगती है । वास्तोष्पति सूक्त में उच्चतर चेतना को आराम, शक्ति सोने के द्वारा पहुंचाई जा रही है (श्वा से अर्थ भविष्य काल से भी हो सकता है) । कहा गया है कि समुद्र से एक हजार सींग वाले वृषभ का उदय होता है और उसकी सहायता से यह सुलाने का कार्य किया जाता है । यह समुद्र कौन सा है और हजार शृङ्गों वाला वृषभ कौन सा है, यह अन्वेषणीय है । सामान्य अर्थों में समुद्र को आनन्द के समुद्र के रूप में तथा सींगों को अतिमानसिक चेतना के विकास के रूप में लिया जाता है ।

Sunday, August 8, 2010

Ek pukar from Jagao Mohan payare

Secularism: Indian Istyle

Lot of Hindu bashing is going on recently under the garb of Secularism in India. To give a correct picture here are some facts, figures and opinions.

1. When Shri Y B Chavan was Home Minister he collected data of 23 major communal riots occurred after independence. The truth came out showed that out of 23 major riots, 22 were started by Muslims. Though one exceptional riot was not started by Hindus, there was no conclusive proof that it was started by Muslims. The recent communal riots in Gujarat were also started by Muslims. To keep their tradition in tact thereafter, the communal riots in Akola and Kalyan (Maharashtra) were also started by Muslims.

2. Muslims do not require majority to start a riot. If they have sizable pockets of even 10 per cent, they start riots. When they have a majority, they totally wipe out the other community as they have done in Kashmir by crushing lakhs of Hindus. Invariably in all these riots more Hindus die than the Muslims. Hindus are killed by the Muslims by starting the riots and then again Hindus are killed in police firing when they try to retaliate. In recent communal riots in Gujarat in fortunately for the secularists more Muslims died than the Hindus. That is why there is so much hue and cry. According to the secularists all riots should be on Kashmir Pattern. That is for one death of a Muslim at least 100 Hindus must die in communal riots. That is secularism- Indian- Istyle. English media is playing a leading role in this secular game. And in that too among the print media The Times of India and among the electronic media Star News. Tops. Later Girilal Jain was an exception. Sometimes I wonder whether am I living in India or Pakistan?

3. But this phenomenon is not akin to India alone. Wherever there is Islam there is fundamentalism. Whether it is Algeria, Azarbaizan, Bosnia, Britain, Germany, Morroco, Phillipines, Somalia, or our neighbour Pakistan – the Macca of terrorism. After killing all Hindus, now in Pakistan they are killing comparatively progressive sects like Shias and Ahmedias. As if without killing Islam cannot survive.

4. Secularists use pet phrases like ‘Secular Muslim’ or ‘Hindu Fundamentalist’. Both these concepts are ridiculous. For the simple reason that a Muslim ceases to be a Muslim the moment he becomes secular and a Hindu ceases to be a Hindu the moment he becomes fundamentalist. If there are exceptions like Hamid Dalvai in the past and Muzzafar Hussain at present that prove the rules. What are the traits of a secular person? Firstly, he should be tolerant, secondly, he should be pluralist, thirdly, he should have respect for other faiths too, fourthly, he should be democratic, fifthly, he should be first an Indian and a humanitarian then anything else. All these traits are conspicuously absent in a Muslim and present in a Hindu.

5. The attack on WTC on 11/9/2001 in USA shocked the whole world. I was not shocked. But it surprised me because I expected it to happen in the 20th century not in the 21st century. I went abroad in 1975, where I came in contact with some members of the Pan Islamic movement. The information I gathered from them was horrible. According to them their network is spread throughout the world, their enemy No. one is Christianity and the states governed by people of Christian faith, because they are very powerful and rich and main threat to Islam. This Pan Islamic Movement is funded by all and sundry who have faith in Islam – from underworld to Muslim Celebrities to ordinary Muslims. Their Cadres come from Mdrassas. They have the capacity to destroy the whole world, but that is their last weapon, first they wanted to convert the whole world into Islamic faith. (To me both these things – to convert the world into Islamic faith or destroy it are one and the same thing).

source: http://www.hvk.org/

NOTE: Every body feel free to copy this blog and make your own and put these articles on it and protect your dharma also you can sign up for google Adsense account and make some money but please use 50% of the money earned from such blog for the protection of dharma or feeding the poor, only money making should not be the purpose of the blog but it is offered to you to encourage the promotion of these articles as we want every hindu to read these articles and after somuch discussion we found above way is the best to reach our target audience, make sure you interpret the above paragraph correctly

also please aesaa koi kaam na karein jis se iss desh ke liye shahid hone walo kee aatma ko thes pahoche

thank you

Friday, August 6, 2010

Review for PDFZILLa

Write Reviews, Get FREE License!

Are you a webmaster, blogger, Magazine Editor or internet columnist? We will present a free serial number of PDFZilla to you if you write a review of PDFZilla on your own website, blog space, Magazine or column! Don't hesitate! Write immediately and get the FREE License now!
 But
(But is a good word i like it as it changes the overalll sequence)
I tried to change some PDF typed in hindi and get result as shown below








ौीगणशाय नमः। नमारायै।े
कैलासिशखरासीन भैरव कालसितम।ंंं्
ूोवाच सादर दवी ःसमािौता॥ ंे१-१॥




Thursday, July 22, 2010

Vinamra nivedan

सभी भाइयों से मेरा अनुरोध है की यदि आप के पास कोई भी संस्कृत की किताब हो तो उसे कृपया फेंके नहीं उसे किसी को दे दीजिए या फिर +९१-९९३५५५१९२९ पर संपर्क करें जिससे संस्कृत का भला हो , यदि संस्कृत  का कोई भी पीडीऍफ़ फ़ाइल आप के पास हो और आप उसे शेयर करना चाहते है तो कमेन्ट करें
अवध राम पाण्डेय

Saturday, July 10, 2010

Friday, May 21, 2010

Defination of saint (as told by Sri RAM )


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’¨Ô okrkZ iqu¢ fdlh v©j fnu--------

Wednesday, May 19, 2010

Some days with Saints



Lakrksa ds lkFk dqN fnu fcrkus dk lkSHkkX; eq>s dqEHk ds volj ij feykA
tgkWa fo’o Hkj ds vusdksa yksxks ds vkxeu ls iz’kklu ijs’kku Fkk ogha tuekul esa larksa ds n’kZu dh ykylk o muds pj.k Li’kZ dj oUnuk djus dh mRdV bPNk yksxksa dks jsys ds :Ik esa dqEHk /kke esa vkdj xaxk xaxk djrs gq, Luku dj Lo;a dks /kU; djus dks izsfjr dj jgh FkhA
Jh Jh 1008 Lokeh Jh y{;s’oj vkJe th egkjkt gfj}kj esa ,dek= ijegal dksfV ds lar gS ftudk n’kZu ek= gh ukjk;.k ds n’kZu ds leku gSA gfj}kj ds Hkwek vkJe esa okl djus okys ;s lar laU;kl D;k gksrk gS blds thoar mnkgj.k gSa thou esa vkius dHkh ’kk;n gh nzO; dk Li’kZ fd;k gks] ckydksa ds leku LoN ,oa fuLNy eqLdku ds lkFk gj vkus okys dk Lokxr dj mls izlkn nsuk mlds nq%[k dks nwj djus ds fy;s rqjUr Hkxoku ls izkFkZuk djuk vkidk LoHkko gSA vkids pj.kdey ds ijkxksa esa vkIykfor gksdj eSa vkufUnr o /kU; gks x;kA
nwljs lar ftuds lkFk eS nks efguksa rd yxkrkj lEidZ esa jgk tks Hkkjr ljdkj esa x`gjkT; ea=h jg dj Hkh mikluk dSls gksrh gS o dSls fdlh dks bTtr nsdj lEekfur fd;k tkrk gS vki ls eSus lh[kkA ;fn vki fd utj esa cqjkbZ ns[kuk gh /;s; gS rks pUnzek esa Hkh reke cqjkbZ;kWa gksrh gSa ij utj lkQ gks rks lar D;k gksrk gS ;g tkuuk vR;Ur gh ljy gSA eSus Lokeh Jh fpUe;kuUn th ljLorh ds vkJe esa 62 fnolh; yfyrk dksfV vpuZ ;K esa vkpk;Z in dk xq:rj dk;Z laogu flQZ vkids gh vkf’kokZn ls fd;kA
,d eU=h tks jktuhfr ls tqMk gks vkSj /;ku;ksx ds lk/kuk iwoZd yfyrk dksfV vpZu fcuk ukxk ds djs ;g ,d nqyZHkre ;ksx gSA
vkids lkeus fdruk Hkh vko’;d dk;Z D;ksa u gks vki Hkxoku ds lkeus gj dk;Z dks NksM dj /;kueXu gks vkjk/kuk djrs jgsA eS Lo;a vk’p;Z esa Fkk fd D;k ,slk Hkh gksrk gSA ijefirk ijes’oj ls esjh izkFkZuk gS fd ,sls larks ds lkFk gekjk izfr{k.k tqMk gks vkSj mudks ijek;q izkIr gksA
ijeifo= ;teku :ih ijnsork dk oUnu eS gj{k.k djrk jgwa ;s jktjkts’ojh ls esjh izkFkZuk gSA

iqu% le; feyus ij-----------

Friday, May 14, 2010

Life is good when we r engaged

Ygnya is very well known relligious sectifice through which we pray from god to make us healty, wealthy, wise
from 15 of april I was in Parmarth asram governed By H. H sri Swami Chinmayananad ji saraswati who was ex. Minister of states of Indian Government, swami ji was panctual for Pooja & always very polite for us
here are some pics i want to share with all of u.

Friday, March 5, 2010

Chid gagan chandrika Main page

Sanskrit Text Book CHIDGAGAN CHANDRIKA

Lost books are those gems which were firstly owned by us but time and our careless behaviour lost them

Monday, February 8, 2010


Read this sloka and comment if any it is about the lagna ie. how we analyse from lagna

First letter to lovers of Indian Knowledge

Welcom to the ancient world of astrology
our moto is to distribute the esence of Knowladge of India to all world