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Monday, May 16, 2011

हुताशनश्चन्द्रनपङ्कशीतलः

राजा भोज एक प्रसिद्ध राजा हुए । राजा तो थे ही स्वयं उच्च कोटि के कवि, लेखक, दार्शनिक भी थे । साहित्य पर इनके अनेक ग्रन्थ जगप्रसिद्ध है । उनकी योगसूत्रो पर भोजवृति भी प्रसिद्ध है । उनके दरबार मेँ बड़े - बड़े कवि थे, साधारण भी कोई श्लोक बनाकर राजा भोज के पास लाता था तो भोज उसका बड़ा सम्मान करते थे । दण्डी , बाणभट्ट आदि उनके सभापण्डित माने जाते थे । कालिदास भी उनके अत्यन्त प्रिय कवि थे । एक बार उन्होँने एक समस्या रखी पूर्ति के लिए ।

" हुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः "

बड़े - बड़े कवि एक दूसरे का मुँह देखने लगे । हुताशन - अग्नि चन्दनपंक के समान( घिसे हुए चन्दन) के समान शीतल हैँ । राजा का दिमाग पगला तो नही गया ? कोई बोल नहीँ रहा था । भोज राजा एक - एक कवि को कह रहे थे - समस्या पूर्ति करो । कालिदास जी मुस्कुरा रहे थे । भोज ने कहा - कालिदास जी, अब आप ही समस्या पूर्ति करेँ । कालिदास जी ने तुरंत कहा -



" सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके न बोधयामास पतिँ पतिव्रताः ।

तदाभवत्तत्पतिभक्तिगौरवाहुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः ।।""



राजा ने श्लोक के एक - एक अक्षर के लिए एक - एक लाख रुपये दिये । अक्षरलक्ष ददौ । कालिदास कहाँ कम थे ? लाखोँ रुपया गरीबोँ को बाँट दिया ।



कथा इस प्रकार से है राजा भोज समय - समय पर भेष बदल कर स्वयं गुप्तचर बनकर प्रजा की बात को समझते थे । पहले समय राजा लोगोँ का ऐसा ही नियम था, प्रजा के सुख - दुख को वे साक्षात् देखते थे । एक बार एक ब्राह्मणदेवता ने यज्ञ किया । गरीब होने पर इधर - उधर से कुछ धन एकत्रित कर यज्ञ प्रारम्भ किया । सम्पन्न होने पर यथायोग्य दक्षिणा देकर ब्राह्मण व देवताओँ को विदा किया । कई दिनोँ के अथक परिश्रम से यह यज्ञ सम्पन्न हुआ था पूर्णाहुति के बाद सभी चले गये थे, केवल एक ब्राह्मणदेवता एवं ब्राह्मणपत्नी , अग्नि , बच्चा यज्ञमण्डप मेँ रह गये थे । रात हो गई थी, कार्य पूरा होने पर ब्राह्मणदेवता को भारी थकावट हो गई थी तो वो वही यज्ञमण्डप मेँ लेट गये, पत्नी वहीं थी तकिया नही था इसलिए अपनी गोद मेँ ही पति का सिर ले लिया । ब्राह्मणदेवता को नीँद आ गयी । छोटा बच्चा खेलता - खेलता यज्ञकुण्ड के पास चला गया यह देख के ब्राह्मणी को घबराहट होने लगी कि बच्चा कहीँ यज्ञकुण्ड मेँ न गिर जाए । किन्तु उसको अपने पति पर पूरी भक्ति थी । ब्राह्मणदेवता थे भी वैसे । ब्राह्मण के सम्पूर्ण लक्षण उनमेँ थे । " शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्मस्वभावजम् ।।



ब्राह्मण को शम दम संपन्न होना चाहिये । मनोनिग्रह और वाह्येन्द्रियनिग्रह ब्राह्मण के लिये भृषण हैँ । संतोष यह मानस गुण है । इन्द्रियोँ के लालच का अभाव बाह्येन्द्रियोँ के गुण हैँ । तप करना तो ब्राह्मण का धर्म है । शुचिता नियत होनी चाहिये । शारीरिक शुचिता रखनी चाहिये । बाणी पवित्र और मन भी पवित्र हो । ब्राह्मण क्षमाशील हो । सीधापन हो , कपट न हो । वक्रमार्गी न हो । शास्त्राध्ययन जन्य ज्ञान हो । सबसे बड़ी बात आस्तिक हो । यह बाह्मणदेवता जो यज्ञमण्डप मेँ ठहरा था , सर्वगुण सम्पन्न था । पत्नी मेँ भी अपारनिष्ठा थी । बच्चा यज्ञकुण्ड के पास है अब पति का सिर नीचे करते है तो उनकी नींद टूट जायेगी इतने दिनोँ के बाद आज थके - थकाये सोये हैँ । कैसे जगायेँ ? सोच ही रही थी कि बच्चा कुण्ड मेँ गिर गया , हे राम!!



बच्चा गिर गया तो स्वभावतः रोने लगा । ब्राह्मण की नींद टूटी । क्या हुआ ? देखा तो बच्चा कुण्ड मेँ गिरा हुआ रो रहा है । ब्राह्मणदेव हड़बड़ा कर यज्ञकुण्ड के पास गये । देखा तो बच्चा का रोना बन्द हो गया था । क्या मरने से? नही, वेहोश होने से ? नही। बच्चे को कुण्ड से निकाला तो उसका एक बाल भी जला नही था । बच्चा मुस्कुरा रहा था । ब्राह्मण देव ने कहा - " अहो दयालु है भगवान् । तुम्हारी लीला अपरंपार है ।





राजा भोज सारा दृश्य दूर से देख रहे थे वहीँ उन्होँने श्लोक का चतुर्थ पाद् बनाया । " हुताशनश्चन्द्रनपङ्कशीतलः " । हुतमश्नातीति हुताशनः । आहुति को खानेवाला हुताशन वह चन्दनपङ्क के समान शीतल हो गया । राजा चुपचाप घर आये । जानना था कि वह चमत्कार कैसे हुआ , अन्य कवि भला यह सारा रहस्य कैसे जाने ? कवि का एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वो अदृष्ट लेखन यानी के जिसको देखा नही उसका भी वर्णन करने मे सक्षम होता है! कवि तो कालिदास ही थे । उनके मन मेँ स्पष्ट स्फुरणा हुई । और " सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके " इत्यादि पढ़ गये । यह उनका प्रतिभज्ञान था अतिन्द्रिय ज्ञान था । ऐसा अतिन्द्रिय ज्ञान जिसका हो उसी का काव्य यथार्थ होता है । प्रेरणादायी होता है । अन्तरात्मा तक पहुँचता है । सभास्थ सभी पण्डितोँ ने स्वीकार किया कि कालिदास ही कवि हैँ । इसीको क्रान्तदर्शन कहते हैँ ।

प्रस्ताव!!

एक बार शंकर पार्वती जी अपने आप मे बातें करते हुये टहल रहे थे रास्ते मे भवानी ने पूछा कि - हे भगवान आप इतना ठंड कैसे बरदाश्त कर लेते हो! क्या आप का यह दिव्य शरीर शीत आदि से बाधित नही होता! शिव हंसने लगे उनका मन थोडा मजाक करने का था तो कहा गिरिजे प्राणप्रिये जब शीत के घर मे तुम्हारा जन्मस्थान है, शीतांशु मेरे सिर पर विराजमान है तो शीत से क्या डरना!भवानी भव से थोडा रुष्ट होते हुये बोली कि आप मेरे पिता का नाम बदनाम न करें और न ही बहाना करें आप तो राज बताईये!! नही तो मैं चली अपने पीहर!

भगवान बोले - अरे भागवान क्यों नाराज होती हो! व्यर्थ मे धमकी देती हो! जानता हूं मेरे बगैर नही रह पाती हो फ़िर भी शब्दबाण चलाती हो!!



फ़िर भगवान ने कहा इसके पीछे है एक भक्त की चालाकी !!

भवानी चकित !!अरे भगवान से भक्त ने चालाकी की कैसे! आप झूठ बोल रहे हैं ये सम्भव नही!!शंकर भगवान बोले - अरे नही जानती हो जब भक्त को काम निकालना होता है तो इतने प्रेम से आग्रह करता है कि क्या करूं न चाहते हुये भी मैं फ़ंस जाता हू! तुम भी तो मुझे आशुतोष नाम से बुलाती हो ये उसी का फ़ल है!!

अब भगवती और परेशान कि आखिर मे राज क्या है! क्या हो सकता है! कुछ ऐसा है जो भगवान छुपा रहे है!! भगवती ने गुस्से से मुंह फ़ेरा और आशुतोष विश्वनाथ बोले अच्छा चलो मैं बता रहा हूं॥एक बार मेरा एक भक्त आया और उसने मुझसे ही मिलने की जिद की, नन्दी भृंगी आदि के लाख पूछने पर भी कुछ नही बताया तो मैने कहा नन्दी से लाओ देखें क्या कहता है तुम उस समय स्नान करने गई हुई थी!! भक्त आया और आते ही मेरे चरणॊं मे गिर गया और श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करके उसने मेरे पास प्रस्ताव रक्खा -

गंगा जलात हैमवती प्रसंगात शीतांशुनाशीत निपीडितोसीतापत्रयातिपरितापित मानसेस्मिन आगत्य तिष्ठोप्युभयकार्य सिद्धी!!

उसके वचनानुसार मेरे सिरपर गंगधार है ,गंगाजल जो की अत्यन्त शीतल होता है , हिमवान की पुत्री से विवाह हुआ है और सिर पर शीतांशु चन्द्रमा भी है जो की परम शीतल है!! हे भगवन आप तो ठंड से अकड जायेंगे!! इसलिये भगवान त्रिविध तापों (आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक) से पीडित मेरे हृदय मे आप आ के वास करिये तो मेरी जलन खत्म हो और आप की अकडन भी खत्म हो जाये दोनो सुखी हो जाये!! उस भक्त के इस प्रस्ताव को मैं ठुकरा न सका और विश्वनाथ होने के कारण मैं भक्तों के तापत्रय युक्त हृदय मे वास करने लगा इसलिये मुझे सर्दी नही लगती!!पार्वती जी ने मन्द मुस्कुराहट के साथ प्रणाम किया और दोनो लोग अपने आश्रम मे वापस आगये!!

ईश्वर

इस दुनिया मे तमाम सभ्यतायें आयी, कुछ हैं कुछ चली गई पर सबमे एक बात समान है कि हर सभ्यता किसी न किसी रूप मे ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करती है! चाहे किसी भी रूप मे करे पर है! कुछ आलोचनात्माक विचार वाले मूर्खता का नाम देते है कुछ विश्वास का तो कुछ अन्धविश्वास का, उन सब से परे कुछ नास्तिक वृति के लोग भी हैं जो सिरे से नकार देते है! कुछ तो ऐसे भी हैं जिनके सिर पर साक्षात ईश्वर ही आते है !! पर क्या बात है जिसने करोडों लोगों के हृदय मे जड बना रखा है! मिटाने से भी नही मिटता!!भारतीय साहित्य की आलोडन पर एक उक्ति मिलती है कि ""व्यासोछिष्टं जगत सर्वं"" मतलब कि जितना भी साहित्य है सब जगह व्यास की कृतित्व का प्रकाश है उन्ही व्यास जी का एक श्लोक है!
यं ब्रह्मावरूणेन्द्ररुद्र मरुतै स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवै, वेदैः सांग पदक्रमोपनिषदै गायन्त यं सामगाःध्यानावस्थित तदगतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः!!

इस श्लोक के माध्यम से व्यास जी ने बताया कि जिस देव की ब्रह्मा वरुण, रुद्र, मरुदगण, वेद उपनिषद, आदि ने बारम्बार दिव्य स्तोत्रों से आराधना की है, जिस देव को उसी मे समाहित यानि कि उसी को हृदय मे ध्यान करते हुये जिसको योगी लोग देखते रह्ते है जिसका अंत सुर असुर कोई नही पा सके उस देव को नमस्कार है!!

कुछ जगहों पर लेखक व्यक्त रूप से कह पाने मे असमर्थ हो जाते है तो कहते है-
यं शैवा समुपासते शिवईति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवस्तर्केति नैय्यायिकाअर्हन्नित्यथजैनशासन रता कर्मेति मिमांसकाः सोयं वो विधधातुवान्छितफ़लं त्रैलोक्य नाथो हरिः॥

जिसकी आराधना शैव शिव के रूप मे, वेदान्ति ब्रह्म के रूप मे बौद्ध बुद्ध के, प्रमाण से सिद्ध होने वाले शास्वत तर्क के रूप मे नैय्यायिक मीमांसक जिसको कर्म के रूप मे मानते है वो त्रैलोक्य नाथ श्री हरि हम को वान्छित फ़ल प्रदान करें!!एक बार तो व्यास जी भी हाथ पाव जोड कर प्रार्थना करते है कि जिसका कोई रूप नही पर ध्यान से हम उसके निराकार को साकार कर देते है, जिसकी तुलना नही की जा सकती जो अनिर्वर्चनीय है जिसका बखान नही किया जा सकता उसकी हम स्तुति कर देते है, जिस परम पिता का व्यापित्व इतना है कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड उसके रोम कूपों मे विद्यमान है उसकी व्यापकता को हम तीर्थयात्रा आदि से छॊटा कर देते है - छ्न्तव्यं जगदीश तदविकलता दोषत्रयंमत कृतम!! व्यास जी माफ़ी मांग रहे है कि -- हे जगत के आधार हे जगत के ईश मेरी मुर्खता को छमा कर दो मैने जो ये तीन गलतियां की हैं उसे छमा करो!! पर सन्तुष्टी नही मिलती हो सकता है कि हम मुर्ख हों, मनु ने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और विविध शास्त्रों के विवेचन आदि से तत्व को खोजना चाहिये!तब सिर उठाया तो वृक्ष देखे उनकी प्रत्येक पत्ती एक दूसरे से अलग, कोई माता पिता नही पर मिट्टी से ही जीवन की हर व्यवस्था, दूर देखा तो पक्षी पर जीवन की तरलता बरकरार, पानी मे देखा तो वहां भी जीवन, पर पानी पर नजर जाते ही समझ ने जवाव दे दिया कि भाई आखिर रंग हीन स्वाद हीन पर अतिआवश्यक जीवन तत्व किसने बना दिया पानी और मिट्टी के संयोग से उडने वाली गन्ध ने अहसास दिलाया कि कुछ नाक मे से आ-जा रहा है। जो अदृश्य है पर उसको रोक देने से आंख की पुतलियां उलटने लगी अरे ये क्या है किसने बनाया मन बेचैन परेशान तो फ़िर अन्य ग्रन्थों का सहारा लिया तो पता लगा पानी h20 है जिससे सारी पृथ्वी और भरी पडी है और शरीर का अधिकांश हिस्सा भी वही है!, हवा मे कई तत्व है जैसे o2 co2, nitrogen, hydrogen पर हर तत्व का अलग कार्य है जरूरत सबकी है! तो जो प्रकृति मे सुलभ है उसी से शरीर भी बना ऐसा तन्त्र कि जिसका मूल तत्व क्या है कैसा है किसी ने इस पर नही लिखा, आखिर ये पद्धति कैसे बनी कि मां के गर्भ से उत्पन्न होना है और जरा को प्राप्त कर ये शरीर निष्क्रीय हो जाना है! शरीर मे वो कौन सा तत्व है जिसके न रहने पर शरीर अचेतन, निष्क्रीय हो जाता है!! आधुनिक लोगों ने उसको तरह तरह से बखाना पर कोई जवाब सटीक नही पर एक शब्द निष्प्राण हो जाना ही बता गया कि कोई प्राण तत्व है! जिसके न रहने पर शरीर बेकार हो जाता है!! इसकी व्यवस्था किसने की किसने हर तत्व को नियुक्त किया कि तुम्हारा ये कार्य है तुम ये करो पर प्राण के रूप मे सबको साधता हुआ शरीर को नियन्त्रित करता रहता है!! वही ईश्वर है जो हर चेतन पदार्थ के अन्दर अपने उपस्थिति मात्र से चैतन्यता प्रदान कर के इस समस्त संसार की क्रियाओं को कर रहा है!! जिसमे संसार के समस्त गुण हैं पर वो सर्वथा निर्लिप्त है सबसे, कोई माने या न माने कोई पूजे या न पूजे पर वो अपना कार्य निष्पक्ष रूप से, पूरे लगन से कर रहा है॥वेदों ने तो कह दिया- यदकिंचिद जगत्यां जगत वर्तते तत ईशावस्य मिदं , जो भी जगत मे है उसमे ईश्वर ही है॥अंत मे वेद कहते है योसावादित्ये पुरुषः सो सावहम्म ॥ जो वो आदित्य आदि मे है वही मैं हूं!अपना तो विश्वरचनाकार ईश्वर ही है! आप क्या कहतें है॥